और...किताबें बेच दी जाती हैं.
और...किताबें बेच दी जाती हैं.
" ओहो बड़ी मैडम ने आखिरी में ये काम पकड़ा दिया, तभी तो देर हो गई। ज़रा फीमेल स्टॉफ के बारे में तो सोचती !"
बड़बड़ाते हुए मैं कार्यालय से निकली। यहाँ तक कि अपनी हड़बड़ाहट में मैंने अपने सरकारी दफ्तर के दरबान के नमस्ते का जवाब भी नहीं दिया और ना ही उसकी तरफ देखकर हमेशा की तरह मुस्कुराई।
( जैसे कि... मेरे मुस्कुराने भर से उस दिन मेरी ट्रेन छूट जाती... हुह...!")
बाद में मुझे अपनी इस बात पर खूब हँसी आई।
दरअसल... मैं रोज़ झालिदा से मूरी ट्रेन से अप एंड डाउन करती थी। मेरा घर मूरी में था और कार्यालय झालिदा में। वेस्ट बंगाल का ये छोटा सा कस्बेनुमा शहर अपने रेलवे कर्मचारियों को नौकरी तो देता था पर महिला कर्मचारियों के लिए बाकी सुविधाएं नदारद थीं. कार्यालय से रेलवे स्टेशन कुछ सात आठ मिनट के वाकिंग डिस्टेंस पर था।
और दिन तो मैं आराम से चलकर पहुँच जाती थी, पर आज मुझे काम से निकलते थोड़ी देर हो गई थी। अगर साढ़े पाँच की मूरी एक्सप्रेस छूट गई तो घर पहुँचते तक अंधेरा हो जाएगा।
इसलिए मैं बहुत तेज़ तेज़ कदम बढ़ा रही थी।कि... मैंने आज उसे फिर देखा।उसके चेहरे की मासूमियत और आवाज़ की मिठास ने मेरा ध्यान खींचा था।
" आशुन... आशुन... ऐमोन झालमुढ़ी कोथायो पाबेन ना...!"
मैंने आज फिर देखा उसे। उसके पैरों में आज भी चप्पल नहीं थीं. और ठंड में उसके पैर सिकुड़े जा रहे थे।
मुझे देखा तो पास आकर बड़े ही जोश में कहने लगा...
" बहुत स्वाद है...दीदीमोनी... मुढ़ी ले लो ना... झालमुढ़ी... आज सुबेरे से एकदोम बिक्री नहीं हुआ !"
अभी ट्रेन आ चुकी थी और मैं झालिदा स्टेशन पर मूरी जाने के लिए ट्रेन में बैठने ही वाली थी कि...वही छोटा सा लड़का झालमुढ़ी बेचता हुआ आया और मुझे लेने के लिए आग्रह करने लगा।
ना जाने उसकी आवाज़ में कैसा अपनापन भरा आग्रह था कि... मैं झालमुढ़ी खरीदने को राजी हो गई। जबकि मुझे नहीं पसंद मुढ़ी...!
और मुढ़ी खाने की बात पर मुझे हमेशा अपने दादी की हास परिहास में कही हुई यह बात याद आ जाती है कि...
"पेट बिगाड़े मूढ़ी और घर बिगाड़े बूढ़ी "
मैंने उसे गौर से देखा... करीब आठ नौ साल का रहा होगा। अभी तो इसकी स्कूल जाने की उम्र होगी और इस उम्र में यह झालमुढ़ी बेच रहा है।
मैंने उसे दस रूपये का का झालमुढ़ी देने को कहा तो उसने बड़े ही उत्साह से कच्चे सरसों का तेल, मसाला और आलू मिक्स करके झालमुढ़ी बनाया और उसे अख़बार के ठोंगे में डालकर ऊपर एक पतली और लंबी सी नारियल की फांक रखकर मेरी तरफ बढ़ाया।
मैंने उसकी तरफ दस रूपये बढ़ाते हुए उससे पूछा...
" तुम्हारा नाम क्या है... और...
इतनी छोटी उम्र में तुम मजदूरी क्यों कर रहे हो...? तुम पढ़ते क्यों नहीं...? तुम स्कूल क्यों नहीं जाते...?"
वह थोड़ी देर मुझे देखता रहा और बोल पड़ा...
" दीदीमोनी मेरा नाम बुबाई है और कुछ महीने पहले मेरा बाबा मोर गिया है और घर में खाने को कुछ नहीं है। इसलिए किताब बेचकर झालमुडी बनाने का सामान खरीदा और अब बेच रहा हूं !"
बाबुई की इस बात ने मुझे निःशब्द कर दिया।और... मेरे जेहन में एक अनुत्तरित सवाल छोड़ गया।
कैसा देश है यह और कैसा ये दौर है...?
कि...कभी तो कुछ बनने के लिए किताबें खरीदी जाती है और कभी कभी किताबें बेच दी जाती है कुछ और बनने के लिए...!