V Aaradhya

Tragedy

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V Aaradhya

Tragedy

बड़ी सूनी सूनी है ज़िन्दगी

बड़ी सूनी सूनी है ज़िन्दगी

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"कितनी उदास सुबह, एकदम खाली मन"वसुधा सुबह उठकर ज़ब चाय का पानी सॉस्पेन में डालने लगी तो उसे याद आया अब तो अनिरुद्ध नहीँ है, आज चाय का दूसरा कप पीनेवाला कोई नहीँ।बड़ी मुश्किल से चाय लेकर बैठी थी बालकनी में और चाय का एक घूँट भरते ही मन कसैला हो गया था। शायद वह चाय में चीनी डालना भूल गई थी।"ज़ब ज़िन्दगी में ही मिठास नहीँ तो चाय में एक चम्मच चीनी ना होने से क्या फर्क पड़नेवाला है!"


सोचकर जैसे तैसे चाय को हलक में उतारकर नहाने चल दी।ऑफिस को तैयार होते हुए भी मन थोड़ा उद्गिन था। कैसे सामना करेगी आज सबकी बेधती नज़रों का।तैयार होकर ज़ब ऑटो में बैठी तब ध्यान आया कि आज तो लंच बनाना ही भूल गई थी। याद भी कैसे रहता। वो तो अनिरुद्ध का टिफिन बनाते हुए खुद के लिए भी एक आध परांठे सेंक लेती थी। तभी आज समय से पहले ऑफिस भी पहुँच गई थी।


आज ऑफिस में सब उससे कुछ ज़्यादा ही प्रेम से पेश आ रहे थे। यहाँ तक कि लंच के पहले बॉस ने उसे अपने केबिन में बुलाते हुए सहानुभूति दिखाते हुए कहा था, वह चाहे तो आज आधे दिन की छुट्टी लेकर घर जा सकती है। उसे वसुधा की मनः स्थिति का भलीभांति अंदाजा है। पर ज़ब वसुधा ने बहुत संयत होकर कहा कि इसकी कोई ज़रूरत नहीँ, वह ठीक है। तब उसका जवाब सुनकर बॉस ने भी उसे आश्चर्य से देखा था, जैसे पूछ रहा हो..."जिस स्त्री का एक दिन पहले अपने पति से तलाक हुआ हो, वो भला सामान्य कैसे रह सकती है?"


बॉस के केबिन से वापस अपने टेबल पर आते हुए वसुधा सोच रही थी कि,यह एक अजीब सोच है। लोग एक तलाकशुदा स्त्री को ना तो सामान्य समझते हैं ना सामान्य रहने देते हैं। अगर अपना दुःख सबको रो रोकर बताती फिरे तो बेचारी और अगर अकेले में रोए और बाहर लोगों के बीच सामान्य रहने की चेष्टा करे तो उसे तेज़तर्रार समझ लिया जाता है।खैर, किसी तरह वह दिन बीता और वसुधा ज़ब घर पहुँची तब भी उसे लग रहा था ऑफिस और मुहल्ले वालों की नज़रें उसका पीछा कर रही हैँ और उसे या तो तेज़तर्रार, चरित्रहीन समझ रहे हैँ या फिर बेचारी। जिसके पति ने उसे धोखा दिया।


घर पहुँचक फ्रेश होकर वसुधा थोड़ा अच्छा महसूस कर रही थी, उसे कसकर भूख भी लग आई थी। कुछ बनाने का मन नहीँ था। उसने सोचा कुछ ऑर्डर कर दूँ,पर फिर अगले ही पल ख्याल आया अगर पड़ोस में किसीने डिलीवरी बॉय को इस घर में खाना पार्सल करते देख लिया तो सोचेंगे, कल ही तो तलाक हुआ है और आज ये मस्ती कर रही है, तलाक का जश्न मना रही है। शायद उसे हृदयहीन से चरित्रहीन तक की संज्ञा दे डालें।


बहरहाल, उसने बाहर से खाना मँगवाने का विचार छोड़कर अपने लिए नुड्ल्स बना लिए।

खाकर निपटी ही थी कि छोटी बहन भावना का फोन आ गया। हालचाल के बाद उसने बताया कि वह कल सुबह आएगी। और चुँकि अगले दिन इतवार था इसलिए दोनों बहनें साथ रहेंगी, सोमवार को वसुधा उसे उसके हॉस्टल तक छोड़ देगी।रात को सोते हुए वसुधा को अपने बिस्तर के बगलवाली खाली ज़गह को देखकर बहुत रोना आ रहा था। वैसे पिछले कई दिनों से अनिरुद्ध और वो एक साथ नहीँ सो रहे थे। जबसे उसे अंजना के गर्भवती होने का पता चला था तबसे वसुधा अनिरुद्ध के साथ एक बिस्तर पर बहुत असहज महसूस करने लगी थी। पर एक उसके होने का एहसास तो था,जो आज नहीँ है।


आज मन एकदम खाली था और जीवन भी। आगे किसके लिए जीये, किसके सहारे जीये, कुछ समझ नहीँ आ रहा था। कई बार तो मन में यह ख्याल भी आया कि कहीं उसने अनिरुद्ध से तलाक लेकर कोई गलती तो नहीँ कर दी?पर दूसरे ही पल उसका स्वाभिमानी मन जवाब देता, नहीँ! उसने गलती नहीँ की। जिस रिश्ते में प्रेम और सम्मान ना हो और किसी एक साथी द्वारा धोखा दिया जाए उसमें बंधे रहने का कोई औचित्य भी नहीँ था।आज वसुधा की आँखों से नींद कोसों दूर थी। मन बार बार अतीत के गालियारे में भटक रहा था।


दो साल पहले ज़ब उसकी शादी अनिरुद्ध से हुई थी तब वसुधा अपनी किस्मत पर फूली नहीँ समा रही थी। अनिरुद्ध था भी एकदम सजीला नौज़वान और एक प्राइवेट कंपनी में सीनियर एक्सीकुटिव के पद पर कार्यरत होने की वजह से उसके व्यक्तित्व की गरिमा कुछ और बढ़ गई थी। मध्यमवर्गीय वसुधा के पिता की बैंक की साधारण नौकरी में घर का खर्चा और दोनों बहनों की पढ़ाई लिखाई से जो बचता वो मकान की किश्त वगैरह भरने में ही खर्च हो जाता था। ऐसे में अनिरुद्ध जैसे उच्च प्रतिष्ठित परिवार का वर जुटाना वसुधा के पिता के लिए कदाचित सम्भव नहीँ था।वह तो वसुधा के पिता के एक मित्र ने ही यह रिश्ता करवाया था। आश्चर्य की बात की लड़केवालों की तरफ से दहेज़ वगैरह की कोई माँग नहीँ थी। बस चट मँगनी पट ब्याह।


तभी वसुधा ने अपना मार्केटिंग मैनेज़मेंट का कोर्स खत्म ही किया था कि अनिरुद्ध का रिश्ता आ गया। वह आगे नौकरी करना चाहती थी पर माँ ने कहा,

ज़ब इतना अच्छा रिश्ता सामने से आया है तो पहले शादी कर लो फिर मन करे तो आगे जाकर नौकरी भी कर लेना। और उस वक़्त से वसुधा ने अपनी इच्छा अपने सपने को परे रखकर इस शादी को निभाने में अपनी सारी शक्ति लगा दी थी।शादी के बाद ही उसको कुछ कुछ आभास होने लगा था कि यह शादी अनिरुद्ध की इच्छा के खिलाफ हुई है। उसके रिश्ते की एक ननद ही जाते वक्त उसे चुपके से सारी बात बता गई थी कि अनिरुद्ध किसी और लड़की अंजना से प्यार करता है पर वह लड़की ब्राह्मण ना होकर नीची जाति की थी अतः माता पिता नहीँ माने। एकलौती संतान होने के नाते अनिरुद्ध को उनकी इच्छा के आगे झुकना पड़ा।उस दिन वसुधा के सारे अरमान चूर चूर हो गए। हथेली की मेहंदी के रंग तो जस के तस थे पर उसके चेहरे का रंग ज़रूर उड़ गया था।


सोचा, माँ बाबूजी को बताए या फिर अनिरुद्ध से जाकर पूछे कि मेरे साथ ऐसा क्यों किया। एक ख्याल ये भी आया कि अपने प्रेम और त्याग से वो अनिरुद्ध और घरवालों का दिल जीत ले और फिर अनिरुद्ध अंजना को भूलकर पूरी तरह उसके लिए समर्पित हो जाए।अंततः बहुत सोच विचारकर उसे यही विकल्प समझ आया कि वह अनिरुद्ध का दिल जीतने की कोशिश करे। आखिरी उसकी ब्याहता पत्नी है वसुधा। उसका पूरा अधिकार है अनिरुद्ध पर।


वसुधा ने कोशिश तो सही शुरू की थी पर उसकी किस्मत उसका साथ नहीँ दे रही थी। सास ससुर तो उसकी सेवा से बहुत खुश रहने लगे थे। कई बार वसुधा उनकी आँखों में अपने लिए कृतज्ञता का भाव देखती जैसे कि अनिरुद्ध द्वारा वसुधा की उपेक्षा किये जाने पर माफ़ी माँग रहे हों। पर वसुधा को तो बस एक ही धुन चढ़ी रहती थी कि कैसे भी अनिरुद्ध उसे अपना ले।ऐसे ही एक उदास शाम को वसुधा खिड़की के बाहर ढलते शाम को देख रही थी कि अनिरुद्ध ने कमरे में प्रवेश किया। वसुधा को यूँ उदास देखकर पता नहीँ उसके मन में क्या आया। शायद करुणा या सहानुभूति का भाव रहा होगा जो उसने स्वयं आगे बढ़कर वसुधा को गले लगा लिया।


उस रात वसुधा के आँसुओं ने अनिरुद्ध तक अपनी सारी शिकायतें पहुँचा दीं। और अनिरुद्ध ने उसे अपनाते हुए अपने पार्श्व वाली जगह दे दी। शायद आगे चलकर दोनों एक दूसरे को पूरी तरह अपनाकर आगे बढ़ जाते या कुछ और होता पर जो हुआ वह वसुधा के लिए अच्छा नहीँ हुआ।


अनिरुद्ध का प्रमोशन और तबादला एक साथ हुआ तो सब खुश थे सिवाय वसुधा के। लखनऊ से रायपुर जितनी दूर नहीँ था उससे ज़्यादा दूरी तो सबके दिल में आनेवाली थी। ज़ब अनिरुद्ध ने बताया उसका ट्रांसफर रायपुर हुआ है तो वसुधा की समझ में जैसे कुछ कुछ आने लगा कि ये तबादला अनिरुद्ध ने जानबूझकर करवाया है। क्योंकि अंजना भी तो रायपुर में ही रहती थी।अनिरुद्ध की पहली जोइनिंग भी रायपुर ही थी जहाँ से दोनों का प्रेम प्रसंग शुरू होकर परवान चढ़ा था। बाद में ससुरजी का ज़ब हार्ट अटैक हुआ था तो उन्होंने जोर देकर अनिरुद्ध को यहाँ बुलवा लिया था। अब इस बार चुँकि प्रमोशन के साथ तबादला हुआ था तो मना करने या रोकने का सवाल ही पैदा नहीँ होता था।लखनऊ से निकलते हुए वसुधा अपनी सास से लिपटकर ऐसे रोई जैसे माँ से बिछड़ रही हो। सास भी उसे कई हिदायतों के साथ इशारे इशारे से उस कलमुँही अंजना से सावधान रहने को भी समझा रही थी।


रायपुर आने पर कुछ दिन तो इतने आराम और हँसी ख़ुशी से कटे कि वसुधा के दिमाग़ से अंजना का ख्याल एकबारगी उतर ही गया।उन्हीं दिनों वसुधा की माँ के आकस्मिक निधन का समाचार आया तो वसुधा को रायपुर जाना पड़ा। बस उसके पीछे उसके दुर्भाग्य ने वसुधा के घर और ज़िन्दगी में प्रवेश कर लिया।माँ के बाद पिता को सँभालने और छोटी बहन भावना की आगे की पढ़ाई कैसे होगी, कहाँ पर होगी,यह विचार विमर्श करने में वसुधा को मायके में लगभग एक महीने से भी ज़्यादा रुकना पड़ा।


इस घोर दुःख के दिनों में एक ही बात अच्छी हुई कि वसुधा की छोटी बहन का मेडिकल में चयन हो गया। और दो तीन विकल्प में उसने रायपुर मेडिकल कॉलेज को चुनने को प्राथमिकता दी। वसुधा के पिता ने थोड़ी राहत महसूस की कि दोनों बहनें एक साथ तो नहीँ कम से कम एक शहर में तो रहेंगी। क्योंकि भावना तो मेडिकल कॉलेज के हॉस्टल में रहनेवाली थी।एक महीने बाद ही उसके क्लासेस शुरू होनेवाले थे। तबतक भावना के कुछ दिन और साथ रहने से बाबूजी को माँ के निधन के दुःख से उबरने में थोड़ी मदद मिल जाती।


पिता के खाने की व्यवस्था पड़ोस में टिफिन सर्विस वाली आँटी के पास करवाकर और योगाक्लब ज्वाइन करवाकर वसुधा भावना को समझाकर वापस रायपुर को रवाना हुई।घर से निकलते वक़्त वसुधा को माँ की बहुत याद आई। कैसे वो भाग भागकर आचार, पापड़ उसके बैग में भरती रहती कि बैग का चेन जवाब देने को हो आता था। फिर लाल कपड़े में सिंदूर,चावल, हल्दी और हरी दूब बाँधकर उसका आँचल भरती थी। कई बार वसुधा हँसते हुए माँ से कहती,

"छोड़ो ना माँ!क्या है ये पुराने रीति रिवाज "


तो माँ समझाते हुए कहती,"ये सुहागन का सौभाग्य होता है लाडो। इस लाल पोटली से तेरा आँचल भरती हूँ ताकि तुम्हारा भाग्य सौभाग्य अमर रहे!"


पर आज वसुधा का आँचल भरनेवाला कोई नहीँ था। चिर सुहागन रहने का आशीर्वाद देनेवाली माँ तो चिरनिद्रा में सो गई थी। अब कौन भरता वसुधा का आँचल सिंदूर और सौभाग्य से?सोचते सोचते माँ को याद कर वसुधा की आँखों के कोर आज भी गीले हो गए।आज वसुधा सोच रही थी शायद इसीलिए उसका सौभाग्य माँ के निधन के साथ ही जाता रहा था।अपने आँसुओ को पोछते हुए नज़र दीवार पर गई तो रात के डेढ़ बज रहे थे पर ना तो वसुधा को नींद आ रही थी और ना ही यादें उसका पीछा छोड़ रहीं थी।


रायपुर स्टेशन पर अनिरुद्ध को देखते ही वसुधा का मन किया कि उससे लिपटकर खूब रोए पर उसने किसी तरह खुद को संयत कर लिया।रास्ते में उसकी और अनिरुद्ध की कुछ औपचारिक बातें ही हुईं। बीच में माँ के निधन पर ज़ब अनिरुद्ध आया था तब भी उसकी ज़्यादा बात नहीँ हो पाई थी। वैसे भी शोक संतप्त माहौल में बात करने का माहौल ही कहाँ था? बीच बीच में कभी कभी अनिरुद्ध के औपचारिक फोन आए थे बस। आज वसुधा का मन अपने जीवनसाथी से अपना दुःख बाँटने को आकुल हो उठा था। किसी तरह घर पहुँचने तक का धैर्य रख रही थी वसुधा।


उस दिन वसुधा को अपने घर की चौखट कुछ पराई सी लगी थी वसुधा को। घर आने के बाद भी अनिरुद्ध की अतिरिक्त चुप्पी और उसका भावहीन,सीधा सपाट सा चेहरा जैसे किसी और ही सोच में डूबा हुआ लग रहा था।रात को भी दोनों में ज़्यादा बातचीत नहीँ हुई थी।वसुधा के मन में अनिरुद्ध के बदले हुए व्यवहार को लेकर कई सवाल थे जिसका जवाब उसे अगले दिन

अनिरुद्ध के ऑफिस जाने के बाद एक के बाद एक मिलते चले गए।


सबसे पहले तो कामवाली राधाबाई ने उसे बताया कि उसके पीछे साहब की कोई दूर के रिश्ते की बहन बीच बीच में आकर रह जाती थी। एकदम से वसुधा का ध्यान अंजना पर गया पर कामवाली के सामने वो यह दर्शाती रही कि उसे पता है। फिर राधाबाई के जाने के बाद उसे बाथरूम और बेडरूम में ऐसे कई साक्ष्य मिल गए जो बता रहे थे कि उसके पीछे अंजना यहाँ आती जाती रही है। बाथरूम में वो शैम्पू जो ना तो वसुधा इस्तेमाल करती थी ना अनिरुद्ध। बिस्तर का चादर बदलते हुए गद्दे के नीचे एक खूबसूरत सा अन्तर्वस्त्र जो शायद असावधानी वश वहाँ रखा गया होगा, और बाद में अंजना उसे ले

जाना भूल गई होगी।इतना ही नहीँ वसुधा ने ज़ब घर को बारीकी से जाँचा तो और भी कई चीज़ेँ कंघी, और लिपस्टिक के दाग वाला एक रुमाल ऐसी कई चीज़ेँ यहाँ अंजना के आकर रहने के पुख्ता सबूत थे।


यह सब देखकर वसुधा लगभग अपने होश खो बैठी। उसे अनिरुद्ध से ऐसी बेवकूफी की उम्मीद बिल्कुल नहीँ थी। उसे अपनी किस्मत पर बहुत रोना आ रहा था। अभी अभी तो माँ को खोकर आई थी और अब पति की बेवफाई का ये व्रजपात?

वसुधा को कुछ समझ नहीँ आ रहा था कि वह क्या करे।तभी भावना का फ़ोन आया तो वसुधा ने जैसे अपना धैर्य खो दिया। उम्र में उससे बहुत छोटी थी पर भावना अपनी दीदी का दुःख समझती थी। ऊपर से माँ के जाने के बाद कुछ ज़्यादा ही समझदार हो गई थी। उसीने वसुधा को समझाया कि वह लड़ने झगड़ने के बजाए जीजाजी से शांति से बात करे। फिर अगले महीने तो भावना हॉस्टल आ ही रही है फिर दोनों बहन इस समस्या का हल सोचेंगे।

वसुधा ने उसकी बात में हामी भर तो दी पर उसका मन हाहाकार कर रहा था। दोनों बहनों ने ये भी तय किया कि इस बारे में उसके पिता को कुछ ना बताया जाए।


उसके बाद की कहानी ज़्यादा लंबी नहीँ है।उस रात डिनर के बाद ज़ब वसुधा ने अनिरुद्ध से पूछा कि मेरे पीछे घर में कोई आया था क्या?

तो अनिरुद्ध ने उसे अपने और अंजना के रिश्ते का सच बताने में पूरी ईमानदारी दिखाई।जो कुछ भी अनिरुद्ध ने बताया, उसके अनुसार तो अनिरुद्ध और अंजना कभी अलग हुए ही नहीँ थे। माता पिता के दवाब में आकर वसुधा से शादी करने के बाद भी अनिरुद्ध अंजना से दूर नहीँ रह पा रहा था। विवाह के बाद कभी कभी टूर के बहाने वह रायपुर आकर अंजना से मिल लेता था। बातों बातों में अनिरुद्ध ने यह भी स्वीकार किया कि उसने अंजना से मिलते रहने के लिए ही लखनऊ से रायपुर ट्रांसफर करवाया था। अब ज़बकि वसुधा मायके में थी तब बीच बीच में अंजना यहाँ इस घर में आकर रही भी थी जिसका परिचय अनिरुद्ध ने दूर की रिश्तेदार कहकर करवाया था।


सब कुछ जानने के बाद वसुधा एकदम जड़ हो गई थी। अबतक वह अनिरुद्ध और अंजना के प्रेम प्रसंग के बारे में बाहरवालों से सुनती आई थी। अनिरुद्ध के मुँह से पहली बार अंजना और उसके प्रेम के बारे में सुनना वसुधा के लिए जैसे कान में पिघला हुआ शीशा डालने के बराबर ही था।बहुत देर तक दोनों शांत रहे। अब तक इस विवाह में अनिरुद्ध ने वसुधा को इतना अधिकार दिया ही नहीँ था कि वो उसपर बेवफाई का इलज़ाम लगाकर चीखे या चिल्लाए। बस मूक बनकर अनिरुद्ध के कारनामें सुनती रही।


आगे अनिरुद्ध जैसे सारी बातें आज ही कर लेना चाहता था। उसने वसुधा से कहा, वो चाहे तो उम्र भर उसकी पत्नी बनकर रह सकती है पर प्रेम वो अंजना से ही करता रहेगा। अगर वसुधा नहीं चाहेगी तो वह यह घर भी छोड़ देगा। अंजना के साथ रहते हुए भी इस घर का और वसुधा के भरण पोषण की ज़िम्मेदारी वह लेने को तैयार था। साथ ही उसने वसुधा से एक विनती भी की थी कि वह अनिरुद्ध के माता पिता को कुछ ना बताए।उस रात अनिरुद्ध और वसुधा में से कोई नहीँ सोया। अनिरुद्ध पश्चात्ताप की अग्नि में जल रहा था तो वसुधा अपनी किस्मत को कोस रही थी।


अगली सुबह तक आँसुओं से मन का सारा क्लेश धोकर वसुधा अपने भविष्य की रुपरेखा तैयार कर चुकी थी। उसने बड़े ही शांत भाव से अनिरुद्ध को अपना निर्णय सुनाया,


"अनिरुद्ध, जो भी बेइंसाफी आपके और अंजना के साथ हुई है उसमें आपके माता पिता के साथ आप भी बराबर के दोषी हैँ। आपको अपने प्यार के लिए हथियार ना डालकर लड़ना चाहिए था और अगर माता पिता का विरोध करना संभव नहीं था तो आपको अंजना को भूलकर मेरे साथ पति पत्नी का रिश्ता ईमानदारी के साथ निभाना चाहिए था। पर अफ़सोस, आप किसी भी रिश्ते का मान नहीँ रख पाए। अब इतना कुछ हो जाने के बाद हमारे साथ रहने का कोई औचित्य नहीँ रह जाता। मुझे आपकी बात मंज़ूर नहीँ। आप ना तो मुझे छोड़ना चाहते हैँ और ना ही अंजना को। शायद आप अभी भी कोई ठोस निर्णय नहीँ ले पा रहे हैं। पर मैं निर्णय ले चुकी हूँ।मुझे ऐसा अनिश्चित भविष्य नहीँ चाहिए जिसमें मुझे अपने अस्तित्व को स्थापित करने के लिए हर दिन एक जंग लड़नी पड़े।बेहतर है... हम स्वेक्षा से अलग हो जाएं।"


अनिरुद्ध क्या कहता बस मन्त्रमुग्ध होकर वसुधा की बात सुने जा रहा था। अपनी मितभाषी पत्नी को उसने इससे पहले इतना बोलते हुए सुना भी तो नहीँ था। उसे अपने किये का पछतावा तो था ही, अब आत्मग्लानि से उसका सर झुका जा रहा था।अब दोनों ने यह निर्णय लिया कि पहले वसुधा अपने लिए एक नौकरी ढूंढेगी। फिर घर। उसके बाद दोनों तलाक ले लेंगे। फिर चाहे तो अंजना इस घर में रह सकती है। वसुधा कहीं और शिफ्ट हो जाएगी।


आज अनिरुद्ध वसुधा के आगे खुद को बहुत बौना महसूस कर रहा था।उसका मन कर रहा था वसुधा से माफ़ी माँग ले और अंजना को समझा बुझाकर

वसुधा के साथ अपनी नई ज़िन्दगी की शुरुआत करे। पर उसे अब अच्छे से पता चल गया था कि स्वाभाव से धीर गंभीर वसुधा कितनी स्वाभिमानी है

फिर वह अपने और वसुधा के सुखद वैवाहिक जीवन को लेकर सोच भी कैसे सकता था। उधर अंजना माँ जो बननेवाली थी।कुल मिलाकर अनिरुद्ध ने अपने जीवन में कुछ गलत निर्णय लेकर अपने साथ वसुधा का जीवन भी त्रिशंकु की तरह बना दिया था।


इन सब उहापोह में वसुधा ने बहुत ही कुशलता से अपना मान बनाए रखा। पहले नौकरी पकड़ने के बाद ज़ब वह किराए के दूसरे घर के लिए कोशिश करने को हुई तब अनिरुद्ध ने उसे ज़बरदस्ती रोक लिया यह कहकर कि वह इसी घर में रहेगी। चाहे तो अपने पिताजी और भावना को भी अपने साथ रख सकती है। ऐसा करके अनिरुद्ध अपनी गलत करनी का बोझ कुछ हल्का करना चाह रहा था।इधर तलाक का निर्णय वसुधा के लिए भी आसान कहाँ था? अनिरुद्ध ने भले ही अंजना से प्यार किया हो पर वसुधा ने तो उसे पति रूप में पूरे मन से स्वीकार किया था। पर यहाँ बात उसके स्वाभिमान की थी तो उसने यहाँ तमाम विसंगतियों के ऊपर खुद के स्वाभिमान को चुना।


कल वसुधा और अनिरुद्ध का विधिवत तलाक हो गया था। भरे गले से अनिरुद्ध यह घर छोड़कर अंजना के साथ रहने चला गया था। मन दोनों का खाली था। अनिरुद्ध वसुधा को कभी बता ही नहीँ पाया कि धीरे धीरे साथ रहते रहते उसके मन में वसुधा के लिए प्रेम के बीज़ प्रस्फुटित होने लगे थे कि अंजना के प्रेग्नेंट होने के समाचार ने उसके जुबां पर हमेशा के लिए ताला लगा दिया। वह वसुधा की बहुत इज़्ज़त करता था। शायद इसलिए अलग होकर भी वसुधा उससे नफ़रत नहीँ कर पाई। दोनों एक दूसरे के हितैषी बनकर अलग हुए थे। मन में दबी हुई एक चाह लिए हुए कि... काश अनिरुद्ध ने कोई ठोस निर्णय लिया होता।


सोचते सोचते पता नहीँ कब वसुधा की आँख लग गई।सुबह उठी तो सर थोड़ा भारी भारी था। चाय बनाने का सोच ही रही थी कि भावना ने दरवाज़े की घंटी बजाई।भावना के आते ही घर एक सकारात्मक ऊर्जा से भर उठा। चुलबुली भावना अपनी दीदी को बहुत प्यार करती थी। आते ही दीदी के लिए चाय बनाया। फिर दोनों बहनें बेडरूम में बैठकऱ चाय पीने ही वाली थी कि भावना की नज़र बेड के साइड टेबल पर रखे हुए अनिरुद्ध और वसुधा के फोटो पर पड़ी। उसने आश्चर्य व्यक्त करते हुए वसुधा से पूछा,


"ये क्या दीदी? आपने अभी तक अनिरुद्धजी की फोटो यहाँ लगा रखी है "

(भावना ने जानबूझकर जीजाजी ना कहकर अनिरुद्धजी कहा था)अब वसुधा भावना को कैसे बताती कि...कुछ रिश्ते तोड़े से भी नहीँ टूटते। भले ही वसुधा और अनिरुद्ध में पति पत्नी वाला रिश्ता ना पनप पाया हो पर साथ रहकर दोनों एक दूसरे को समझने ज़रूर लगे थे।


तभी वसुधा के फोन पर अनिरुद्ध का कॉल आया। हालचाल पूछने के बाद उसने भावना से भी बात किया। कुछ औपचारिक बातों के बाद ज़ब अनिरुद्ध ने फ़ोन रख दिया तो भावना ने महसूस किया, दोनों को अब भी एक दूसरे की फ़िक्र है। उसे ऐसा रिश्ता बिल्कुल समझ नहीँ आया, जिसमें पति पत्नी तलाक के बाद भी दोस्तों की तरह बात करते हों और दोनों के मन में एक दूसरे के लिए नफ़रत ना हो।


भावना वसुधा से कुछ पूछती उसके पहले ही वसुधा ने खुद ही कह दिया..."ज़ब दो लोग एक बंधन में बंधते हैँ तो यह निहायत ही मन से मन का बंधन होता है। ना तो विवाह वेदी पर सप्तपदी के भाँवरे दिलों को जोड़ते हैं और ना ही तलाक के कागज़ पर किये हुए हस्ताक्षर दो लोगों के रिश्ते को खत्म कर सकते हैँ!"


वसुधा द्वारा कही हुई इस गूढ़ बात का मतलब मासूम भावना की तो समझ में नहीँ आया। इसलिए वह प्यार से दीदी के गले लग गई और अगले दो दिन वसुधा को किसी तरह खुश रखने का प्लान बनाने लगी ताकि वो अनिरुद्ध के दिए हुए दर्द की टीस को कुछ देर के लिए ही सही भूला सके।और वसुधा...

उसने तो स्वाभिमान को चुना था और इस रास्ते चलने की कठिनाइयों से परिचित थी। धीरे धीरे अगले सफ़र के लिए मन को तैयार कर रही थी।अपने कल के सुनहरे भविष्य की नींव वसुधा ने डालदी थी। जहाँ स्वाभिमान हो वहाँ यश को आने से कौन रोक सकता है। उस मानिनी ने अपनी गरिमा बनाए रखने के लिए जो निर्णय लिया था उस वजह से अब वसुधा का भविष्य धुंधला नहीँ बल्कि स्पष्ट दीख रहा था। खुद की ज़िम्मेदारी खुद लेना इतना आसान कहाँ होता है भला।

वसुधा ने सोच लिया था...आगे चलकर वह विवाह ज़रूर करेगी पर किसी पुरुष की पहली पसंद बनकर। उसका यही निर्णय उसके स्वर्णिम भविष्य की नींव थी। अनिरुद्ध पर से विश्वास टुटा था उसका कदाचित प्रेम पर उसका विश्वास अब भी क़ायम था और उसे यक़ीन था कि उसके हिस्से का प्रेम उसे मिलकर रहेगा।

जैसे गोधुली के समय अस्ताचल को जाता हुआ सूरज किसी को रात होने के एहसास से दुखी कर सकता है तो कोई कुछ घंटो में बिखरने वाली चाँद की शीतल चाँदनी का इंतजार करके खुश हो सकता है। कुछ कुछ ऐसी ही दशा वसुधा की भी थी।

आखिर रात के हाशिए से सूरज़ को जनमते हुए देखने के लिए रात की कालिमा से गुजरने तक का सफऱ तो तय करना ही था।


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