V Aaradhya

Abstract Classics Inspirational

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V Aaradhya

Abstract Classics Inspirational

माँ का हाथ जो मेरे सर पर हो

माँ का हाथ जो मेरे सर पर हो

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"हर दुःख में माँ की याद आती है, और सास तो जैसे दुश्मन है" ललिताजी गरम पानी में सोंठ मिलाकर ग्लास में उंडेलते हुए बड़बड़ा रही थी।

ज़ब वो पानी लेकर आई तो पूर्वी अभी तक अपनी माँ से फोन पर ही बात किए जा रही थी। ललिताजी से पानी हाथ में लेते हुए बोली,"मम्मीजी, मेरी मम्मी क़ह रही हैं कि सोंठ कीतासीर गरम होती है इसलिए इसमें थोड़ा साहनी मिला दीजिए। " पूर्वी ने कहा तो ललिताजीको एक बार फिर गुस्सा आ गया। अगर पूर्वीअभी गर्भवती ना होती तो वो उसे समझाने की कोशिश करतीं कि यूँ हर बात में माँ को अपनाछोटा छोटा दुःख बताना ठीक नहीं। अभी गर्भ का सातवाँ महीना चल रहा था। सबकुछ सामान्य था। बस पिछले दो दिनों से पूर्वी को थोड़ी सर्दी खाँसी हो गई थी। उसे अभी दवाई देना ठीक नहीं था इसलिए ललिताजी घरेलू कामगर नुस्खे से ही उसकी सर्दी खाँसी ठीक करने का उपाय कर रही थी। अभी पूर्वी की बात को सुनकर वो बिल्कुल उदासहो गईं कि मैं तो इतना ध्यान रख रही हूँ फिर भी पूर्वी हर बात पर अपनी मम्मी को ही क्यूँ पूछती रहती है ? उन्होंने सोचा इस बारे में वह एक बार पूर्वी की मम्मी से ज़रूर बात करेंगी कि उनका यूँ बार बार पूर्वी को फोन करना, नसीहत देना और पूर्वी का सिर्फ अपनी मम्मी की बात मानना ऐसी बातों से उन्हें अपना अस्तित्व बड़ा गौण सा प्रतीत होता है। जबकि वह अपनी तरफ से पूर्वी की देखभाल में कोई कमी नहीं रख रहीं हैं। पर उन्होंने सामने से पूर्वी को कुछ नहीं कहा। वो गर्भावस्था में उसे कुछ भी ऐसा नहीं बोलना चाहती थी जो उसे अप्रिय लगे। वैसे भी ललिताजी बहुत ही मितभाषी और सौम्य व्यक्तित्व वाली महिला थीं। सोचा, सही समय आने पर इस बारे में पूर्वी से बातकरेंगी ये सोचकर वह शाम की चाय बनाने चल दी। थोड़ी ही देर में शशांक और उसके पापा आनेवाले थे।

अभी शाम की चाय से फ़ारिग हुए ही थे कि पूर्वी की मम्मी कृष्णाजी आ गई। वह बेटी के लिए बहुत सारा खाने पीने का सामान लेकर आई थी। उन्होंने आते ही पूर्वी से भी पहले ललिताजी को गले लगाकर धन्यवाद दिया कि वह पूर्वी का ख्याल इतने अच्छेसे रख रही हैँ जितना वो खुद नहीं रख पाती। इससे ललिताजी के मन की मलिनता कुछ कम तो हुई। पर साथ ही मन में एक सोच उभरी कि अगर ऐसा है तो ये खुद क्यूँ अपनी बेटी पूर्वी के साथ ज़ब तब फ़ोन पर लगी रहती हैँ। ललिताजी आज भी चाहकर भी नहीं क़ह पाई कि अगर पूर्वी का ध्यान वो बहुत अच्छे से रख रही हैं तो उनका बार बार पूर्वी की ज़िन्दगी में दखलन्दाज़ी उनको पसंद नहीं। ऐसे में तो पूर्वी कभी भी इस घर को पूरी तरह अपना नहीं पाएगी। और अगर उनको पूर्वी के ससुराल वालों पर भरोसा नहीं तो क्यूँ नहीं उसे डिलीवरी तक अपने पास ही रख लेती परप्रकट में सिर्फ मुस्कुराकर चुप रह गई। ललिताजी की एक आदत थी ज़ब उनको कोई तकलीफ होती और वो किसीको बता नहीं पाती तोउनका अनकहा उनकी आँखों से आँसू के रूप मेंनिकल जाता था। आज भी यही हुआ। दोनों माँ बेटी ज़ब आपस में बतियाते हुए उनकी उपस्थिति को भी भूल गईं तो ललिताजी की आँखों में आँसू आ गए जिन्हें छुपाने को वो रसोईघर की तरफ मुड़ गईं। उनके पति कमलेशजी रसोई में पानी लेने आए हीथे कि अपनी पत्नी की आँखों में आँसू देखकर चौंक पड़े। पूछा तो अपने आँसू पोछकर वो चुपके से अपने पति के कानों में फुसफुसाकर बोली,"ये जो पूर्वी अपनी हर समस्या, हर दुःख में अपनी माँ को याद करने लगती है इससे उन्हें भी पूर्वी को समझने में बड़ी पॉब्लम हो रही है।

क्या हम इसका अच्छे से ख्याल नहीं रख रहे जो बात बात पर कभी इसकी मम्मी का फ़ोन आ जाता है या कभी खुद आ टपकती हैँ। "कमलेशजी मुस्कुराते हुए बोले,"माँ हैँ वो। माँ और सास में कुछ तो अंतर होता है। तुम भी समझा करो। यूँ अगर कृष्णाजी ने तुम्हें रोते हुए देख लिया तो क्या सोचेंगी। इस बारे में बाद में बात करेंगे। अभी बस रोना वोना छोड़कर उनके साथ बैठो। वरना समधन को बुरा लगेगा "। कमलेशजी का कहना सही था। अतः वो खुद को भरसक सामान्य बनाते हुए चाय बनाने लगीं। चाय के उबलते पानी के साथ उनके मन में कई विचार एक साथ उद्वेलित हो रहे थे। वो याद करने लगीं वो कितनी खुश थीं ज़ब उनके लाडले बेटे शशांक की शादी थी। पूर्वी कैसी गुड़िया जैसी लग रही थी। दो साल पहले ज़ब लखनऊ के कॉलेज प्रोफेसर द्विवेदीजी की बेटी का रिश्ता ज़ब उनके बेटे शशांक के लिए आया था तो उन्हें कुछ नज़दीकी रिश्तेदारों ने समझाया था कि एक ही शहर में मायका ससुराल दोनों होने से अक्सर परेशानी हो जाती है। लड़कियाँससुराल को ठीक से अपना नहीं पातीं। पर तब उसे पूर्वी बहुत भोली भाली मासूम सी लगी थी।

इसके अलावा शशांक को भी पूर्वी बहुत पसंद आई थी। उसका परिवार एक प्रतिष्ठित परिवार था। इसलिए बाकी चीज़ेँ ठीक ठाक लगीं। पूर्वी की माँ कृष्णाजी समझदार थीं और पहले ही उनके घर में एक बहू थी। जिसके साथ कृष्णाजी बहुत अच्छे से सामंजसय बैठाकऱ चल रही थी। उन्हें पता था चाहे सास कितना भी प्यार करे दुख और परेशानी में एक बेटी यह ज़रूर चाहती है कि उसकी माँ का हाथ उसके सर पर रहे। ललिताजी उम्र और अनुभव दोनों में कृष्णाजी से छोटी थीं। अतः कृष्णाजी ने अपने अनुभव से समझ लिया कि कुछ तो है जो ललिताजी के मन में चल रहा है। ललिताजी माँ बेटी को जानबूझकर प्राइवेसी देते हुए किचन में चली गई थी। कृष्णाजी ने पूर्वी से बात करते हुए यह बात नोटिस किया। पर कृष्णाजी पूर्वी को आँखों से इशारा करते हुए खुद भी रसोई में गईं और ललिताजी रो रही थीं। वो भी एक बेटी की शादी कर चुकी थी, उन्होंने समझाया कि एक माँ को बेटी की चिंता सबसे ज़्यादा होती है इसलिए हम माँ और सास दोनोंको ही समझना पड़ता है। आपने देखा नहीं मैंनेजानबूझकर उसे डिलीवरी के लिए यहाँ छोड़रखा है। ताकि आप सबसे उसका रिश्ता औरप्रगाढ़ हो। अब ललिताजी की समझ में कुछ कुछ आने लगाथा कि पूर्वी धीरे धीरे उन्हें और इस घर को अपना समझने लगेगी। उन्हें अपनी समधन की समझदारीपर बहुत गर्व हुआ। अब उनका मन प्रफुल्लित था। वो समझ चुकी थी किदुःख में हरदम माँ की याद आती है। और पूर्वी तो अभी गर्भावस्था के नाजुक दौर से गुजर रही है। ऐसे में उसका बार बार अपनी माँ को याद करना बिल्कुल स्वाभाविक है। ललिताजी के मन का मैल अब धूल चुका था। उन्हें अब पूर्वी और कृष्णाजी से कोई शिकायत नहीं थी। उल्टा वो कृष्णाजी की दिल से शुक्रगुजार थी जिन्होंने उन्हें कई काम की बात बताई थी। कहाँ तो ललिताजी सोच रही थी कि कृष्णाजी ज़रूर अपनी बेटी को मेरे खिलाफ भड़का रही होगी और कहाँ वो पूर्वी और उनके बीच भावनाओं का पूल बनाने की कोशिश कर रहीं थी जिससे उन दोनों में भी माँ बेटी की तरह एक अच्छा रिश्ता पनप सके।


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