सी. आई. डी.

सी. आई. डी.

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विनीत शर्मा को बम्बई रास आ गयी। 20 वर्ष पहले जब वह अपना गाँव छोड़कर यहाँ आए थे तो यह शहर उन्हें बिल्कुल भी अच्छा न लगा। बार-बार यही सोचते कि कहाँ आकर फँस गया। हमेशा चारों ओर भागदौड़ मची रहती है। न रहने को स्थान मिलता है न पीने को पानी। बिना परिचय के कहीं कोई काम-धंधा भी नहीं मिलता। यह कोई बच्चों का खेल नहीं कि टिकट कटाए और यहाँ आ गए। मुंम्बई जैसे बड़े शहरों में जीविकोपार्जन सरल भी है और कठिन भी।

शर्मा जी कारीगरी में कुशल तो थे ही। एक मित्र की कृपा से काम भी मिल गया। उन्हें थोड़ी बहुत राहत मिली। सिर छिपाने की जगह भी मिल गई। समझिए कि मुम्बई ने उनकी तकदीर ही बदल दी। शर्मा जी अपनी दक्षता के चलते एक मामूली कारपेन्टर से ठेकेदार बन गए। बड़ी-बड़ी कंपनियों और बिल्डिंगों के ठेके लेने लगे। विनीत बाबू बड़े दयालु और परोपकारी थे। वह नेक और मृदुभाषी भी थे। क्रूरता और अपकार से उनका दूर का भी रिश्ता न था। वरना, उनकी तकदीर ही न पलटती। सज्जन और धर्मनिष्ठ व्यक्ति का आदर सर्वत्र होता है। शर्मा जी को खूब शेाहरत मिली। मंगलवार का व्रत तो रखते ही, गाँव जाने पर सावन के महीने में खूब सतसंग और प्रवचन भी कराते। दिल खोलकर दान-पुण्य करते। भिक्षुक-भिक्षुओं को नाना प्रकार के भोजन खिलाते। दीन-दुखियों की मदद करते। लोगों की सेवा और आगन्तुकों का बड़ा आदर करते। वह मानव सेवा को परम धर्म समझते। लेकिन, किसी भी तरह मनोकामना की पूर्ति न हुई। पति-पत्नी को मन मारकर रहना पड़ता।

उम्र के 45 वर्ष बीत जाने से ऐसा लगने लगा कि दोनों प्राणी का जीवन नि:सन्तान ही बीत जाएगा। वे बार-बार यही सोचते कि का वर्षा जब कृषि सुखाने। शर्मा जी स्वयं अपने माता-पिता के इकलौते पुत्र थे। न कोई बहन और न कोई भाई। विवाह हुए आज पच्चीस वर्ष बीत गए। पर, अभी तक औलाद का मुँह देखना नसीब न हुआ। पुत्र की लालसा अधूरी ही रही। उन्होंने सैकड़ों उपाय किए। लेकिन, तकदीर में न जाने क्या लिखा था? कि बगीचे में एक भी फूल न खिला।

शर्मा जी की पत्नी अनुराधा जब अपने भाग्य को कोसती तो शर्मा जी बार-बार यही कहते -

"सुनते हैं, ईश्वर जो करता है, सदैव ही ठीक ही करता है। उसके घर देर तो होती है पर, अंधेर नहीं। वह सर्व व्यापी है, सबकी खबर रखता है। हो सकता है हमसे ही किसी मोड़ पर कोई भूल चूक हो गई हो,धौर्य रखो, सब ठीक हो जाएगा एक न एक दिन ईश्वर हमारी प्रार्थना अवश्य सुनेगा।"

पत्नी हर बार यही दुहराती -

"संतान के बिना तो अपनी दुनियां ही अंधेरी लगती है, योग्य पुत्र कुल दीपक होता है,उससे माँ-बाप का नाम रोशन होता है, नि:संतान का जीवन भी क्या कोई जीवन है, बच्चों की किलकारी गूँजने से दिन भर की थकान दूर हो जाती है, अब मुझसे सहन नहीं होता। बुढ़ापे में हमारा सहारा कौन बनेगा। बाल-बच्चे होते तो बिना पैसों के भी ठीक था। ठेकेदारी के पैसे तो एक दिन खत्म ही हो जाएंगे।"

शर्मा जी का पुश्तैनी मकान बहुत पुराना था। उनके माता-पिता की मृत्यु के बाद उसने भी जवाब दे दिया। सावन की तेज और मूसलाधार वर्षा में सारा मकान ढह गया। अब वह मकान नहीं बल्कि, एक खण्डहर में बदल गया। उस समय घर से बाहर न होते तो पति-पत्नी उसके ढेर में दफन ही हो जाते। शर्मा जी संतानहीन होने से मकान बनवाना फिजूल खर्च समझते थे। पति-पत्नी का मन बुझा-बुझा सा रहता। इसलिए एक छोटी सी झोपड़ी बनाकर गुजारा करने लगे। किन्तु, एक देवालय बनवाने के विचार में थे।

वे बरसात बीतने का इंतजार कर रहे थे। धीरे-धीरे वर्षा ऋतु खत्म हुई। आसमान बिल्कुल साफ हो गया। अगहन का महीना आ गया। रवि की फसलों की बुआई जोरों पर थी। कुछ दिन बाद चारों ओर हरियाली ही हरियाली दिखाई देगी। फिर खेत लहलहाएंगे। धीरे-धीरे सर्दी का मौसम आ गया। झिंगुर और मेढ़कों ने शोर मचाना बन्द कर दिया। फसल तैयार होने पर किसान खुशी से झूम उठेंगे।

अचानक एक दिन शर्मा जी की पत्नी अनुराधा ने इतराते हुए उनसे कहा -

"क्यों जी ! इस झोंपड़ी में कब तक पड़े रहेंगे? जगह न होने से किसी मेहमान के आने पर शर्मिन्दा होना पड़ता है। इधर सर्दी भी बढ़ने वाली है। अब तक तो जैसे-तैसे बीता पर, आगे क्या होगा? अत: दो-चार कमरे तो बनवा ही लीजिए।"

पत्नी की कटाक्षयुक्त बातें सुनकर शर्मा जी बोले -

"अरे वाह ! क्या बात है? अनुराधा !आज तुम्हें क्या हो गया है? कैसी बहकी-बहकी बातें कर रही हो? वर्षा तो कब की जा चुकी है। अब तक तुमने एक बार भी मकान का जिक्र नहीं किया। झोंपड़ी में ही जीवन गुजार देने का निर्णय आज अचानक बदल कैसे गया?"

तब अनुराधा ने कहा -

"अरे, अपने लिए न सही, मेहमान के लिए तो बनवाना ही होगा।"

विनीत बाबू बोले -

" वह भी यहीं रहेगा। जिसका इतने दिनों से इंतजार था, वह आया ही नहीं तो दूसरों के आने जाने से क्या फर्क पड़ता है। देखो ! तुम्हारी कष्टमय निराशा देखकर मेरी भी लालसा मर गयी,अब मेरी कोई इच्छा नहीं। ईश्वर को जब यही मंजूर है तो ऐसे ही सही।"

यह सुनकर अनुराधा बोली -

"अजी !आप बड़े भोले हैं। कुछ समझते ही नहीं। अरे, मैं अन्य किसी की बात नहीं कर रही। मैं तो आने वाले नए मेहमान की बात कर रही हूँ। आप तो इतना भी नहीं - -। तीसरा महीना---। मेरा दिन ----।"

अनुराधा की पहेली जैसी बातें सुनकर शर्मा जी झुंझलाहट के साथ बोले -

"इतने दिनों के बाद तुम मेरे साथ ऐसा मजाक क्यों कर रही हो? "

उन्हें पत्नी की बातों पर यकीन नहीं आ रहा था। इसमें उनका कोई दोष भी न था। कभी-कभी कोई अच्छा कार्य भी अधिक देर से होने पर विश्वास ही नहीं होता, कि अमुक कार्य हो गया है। जबकि, बुरा कार्य मनुष्य को जल्दी ही प्रभावित कर देता है।

शर्मा जी को संदेह में देखकर अनुराधा अपने पेट की ओर इशारा करते हुए बोली -

"आप समझते क्यों नहीं? मेरे पाँव भारी हुए तीन महीने होने को हैं। आखिर ईश्वर ने हमारी सुन ली।"

तब शर्मा जी बोले -

" सच।"

अनुराधा ने कहा -

"हाँ सच।"

शर्मा जी ने कहा -

"मेरी कसम। "

अनुराधा बोली -

"आपकी कसम।"

इतना सुनते ही शर्मा जी की नस-नस में खुशी की लहर दौड़ गई। वह आनन्द के अतिरेक में आत्म विभोर हो गए और बोले-

"वाह अनुराधा ! वाह। तुमने मेरे साथ कैसा मजाक किया? इतनी बड़ी खुशी का आनन्द अब तक तुम अकेले ही लेती रहीं। मेरे मन मंदिर की देवी ! थोड़ी खुशी मुझे भी दे देती तो तुम्हारा क्या चला जाता? "

इतना कहकर शर्मा जी ने अनुराधा के कपोलों को चूम लिया।

अनुराधा बोली -

"अरे, नाराज क्यों होते हैं। बुजुर्गों का कहना है कि जब तक कार्य पूरा न हो किसी से मत कहो।"

शर्मा जी बोले -

"तो लो, कल से ही मकान शुरू। हम अभी थवई और मजदूर कह आते हैं।"

शर्मा जी औलाद की खुशी से इतने गदगद हुए कि फूलों नहीं समा रहे थे ।

अगली सुबह राजगीर ने जमीन की पैमाइश करके सारा सामान और खर्च बता दिया। नींव की खुदाई शुरू हो गई। खुदाई होते ही शर्मा जी का भाग्योदय होने लगा। जमीन में गड़ा पुरखों का खजाना यकायक उनके हाथ लग गया। दो मटके चाँदी के और एक सोने का। आम के आम गुठलियों के दाम। मोहरों और सिक्कों से भरे मटकों को देखकर मजदूरों की आँखे फटी की फटी रह गई।

शर्मा जी इतने मालामाल हुए कि पड़ोसियों को उनसे द्वेष होने लगा। इतना माल अस्बाब देखकर सबकी नींद उड़ गई। शर्मा जी और शर्माइन अपने अनमोल रत्न के आने की प्रतीक्षा में थे। उनके लिए एक-एक दिन एक-एक वर्ष जैसा लग रहा था। कुछ दिन बाद फसलें किसान के घर आने लगीं। शर्मा जी के आंगन में एक सुन्दर सलोना बालक आ गया। सौभाग्य से गर्भस्थ शिशु ने पुत्र के रूप में जन्म लिया। पति-पत्नी अपने नए उत्पादन को देखकर मुग्ध हो गए। शर्मा जी का चेहरा सूर्य की भाँति प्रकाशमान हो गया।

वह बोले -

" देर से आया, दुरूस्त आया।"

उसे पाकर पति-पत्नी निहाल हो गए। दोनों प्राणियों ने सलाह करके नवजात शिशु का नाम धनी राम रखा। धीरे-धीरे उनके दौलतमंद बनने की खबर हवा की तरह चारों ओर फैल गई। दुर्भाग्य से यह खबर डाकुओं के एक गिरोह तक भी पहुँच गई।

तब डाकुओं के सरदार ने उनके के पास एक पत्र भेजा -

" जो इस प्रकार था - प्यारे विनीत शर्मा जी ! पुत्र रत्न के लिए बहुत-बहुत बधाई। माँ काली रामधनी को चिरंजीवी रखें। वह सदा सुखी रहे। आपकी खुशी में हमारा डाकू गिरोह भी शामिल होना चाहता है। पर, धरती की गोद से आपको जो खजाना मिला है उसमें हमारा भी हिस्सा है। इसलिए, हम - - -तारीख को आपके पास आ रहे हैं।"

पत्र बढ़ते ही पति-पत्नी के होश उड़ गए। अनुराधा का फूल जैसे खिला हुआ चेहरा मलिन हो गया। वह बोली -

"नाथ ! कुछ कीजिए। चोर-डाकुओं का क्या भरोसा? क्या कर गुजरें।"

विनीत बाबू बोले -

"ठीक है। तुम जरा धौर्य रखो। मैं पुलिस का बन्दोबस्त करता हूँ।

कोतवाली पुलिस थाने में इतला दे दी गई। पुलिस आई और रात दिन पहरा देकर अपनी ड्यूटी निभाई। कोई नहीं आया। बात आई गई हो गई।

तब पुलिस ने शर्मा जी से कहा -

"आप इतने जल्दी घबरा गए और हमें नाहक ही हलकान किए। आपके गाँव के ही किसी व्यक्ति ने द्वेष वश आपको परेशान करने के लिए शरारत की है।"

ऐसा सुनते ही पति-पत्नी भी बेफिक्र हो गए। कुछ दिन के बाद डाकू मंडली ने दूसरा खत भेजा।

"शर्मा जी ! बड़े अफसोस की बात है कि हम उस दिन न आ सके। अब हम - - तारीख को अवश्य दर्शन देंगे। डाकू जबान के धनी होते हैं।"

पुलिस को फिर सूचना दी गई। वह नहीं आई। दरोगा ने चुटकी लेते हुए विनीत बाबू से कहा -

"यार शर्मा जी ! मर्द हो, कोई औरत नहीं। इतने घबराओगे तो आज के युग में जी न सकोगे। इतनी बुजदिली किस काम की? आपकी खुशी सबको अच्छी नहीं लगी। लोग आपसे जलते हैं। घर जाकर आप भी चैन से रहें और हमें भी रहने दें।"

किन्तु हमारी पुलिस का भी कोई जवाब नहीं। चौकस रहना पुलिस की शान के खिलाफ है। वह आगे न चलकर मुलजिम के पीछे-पीछे भागती है। समय से कार्यवाही करना उसे बेमानी लगता है। वरना, क्या मजाल कि समाज में अपराध जिंदा रहे। हाथ से शिकार निकल जाने के बाद हवाई महल बनाना एक बड़ी भूल है।

दरोगा ने कहा -

"शर्मा जी सुनिए ! पुलिस डाकुओं को जीवित न जाने देगी। पुलिस को चकमा देना इतना आसान नहीं, जितना लोग समझते हैं। लोगों की यह सोच गलत है। डाकू सरदार यही तो चाहता था कि पहले घरवालों का साहस तोड़ो। पुलिस को एकाध बार परेशान करके लापरवाह और कर्तव्यहीन बना दो। सबके निश्चित होते ही अपनी दाल आसानी से गलेगी।"

घर आकर शर्मा जी पत्नी से बोले -

"अनुराधा ! लगता है अच्छे दिन के साथ बुरा दिन भी देखना पड़ेगा। फूल के साथ कांटे भी दिखाई दे रहे हैं।"

तब पत्नी बोली-

"अजी ! क्या हुआ? पुलिस मदद करेगी न?"

विनीत बाबू ने कहा -

"पुलिस को मारो गोली। उसके पास शिकायत करने जाना बैठे बिठाए मुसीबत मोल लेना है। इस समय की पुलिस में यह योग्यता ही नहीं है कि सच की खोज कर सके। उनकी अक्ल झूठी रिपोर्ट लिखने तक ही सीमित होती है। पुलिस वाले व्यर्थ की डीगें हांकते हैं। जनता लुटे या पिटे उन्हें क्या लेना देना?"

जून का महीना आ गया। सूर्य देव अपने सात घोड़ों के रथ पर सवार थे । लोग गर्मी और उमस से विकल थे। पति-पत्नी नीम की छाया में बैठकर बच्चे के साथ खेल रहे थे। तभी डाकू महोदय की तीसरी चिट्ठी भी आ गई। पत्र पढ़ते ही पति-पत्नी के पैरों तले की जमीन खिसक गई। वे पसीने-पसीने हो गए। उनका चेहरा तनिक देर में अवसाद से घिर गया। पति ने अधीर दृष्टि से पत्नी की ओर और पत्नी ने मर्मान्तक पीड़ा से पति को देखा। दोनों की ऑंखें नम हो गर्इं। उनके नेत्रों से आंसू की बूंदें छलकने लगीं। अनुराधा ने बच्चे को बंदरिया की तरह सीने से चिपका लिया।

कुछ देर बाद शर्मा जी संयत हुए और फिर कोतवाली पहुँच गए। दरोगा ने देखते ही कहा -

"आइए, शर्मा जी आइए। क्या अब फिर कोई नया गुल खिल गया?"

शर्मा जी बोले -

"साहब ! इस बार तो सच में मामला गंभीर लगता है। आप कुछ कीजिए। वरना, मैं तबाह हो जाऊँगा।"

कोतवाल बोला -

"क्या यार शर्मा जी, मर्द होकर भी अबला जैसी बातें करते हैं। हिम्मत रखिए, कुछ नहीं होगा। हम जनता के लिए ही यहाँ बैठे हैं। कोई सिरफिरा आपको कमजोर समझकर मजाक करता है। आप घर जाकर चैन की वंशी बजाएं। ज्यादे डर है, तो पुलिस का खर्च भरकर पहरा लगवा दीजिए।"

शर्मा जी बोले -

"कोई बात नहीं साहब, आजीवन एहसान मानूँगा। सरकारी खर्च पर न सही, मेरे खर्च पर ही पुलिस का कल बन्दोवस्त अवश्य करें।"

उसके बाद पुलिस आई जरूर पर, अपनी आदत के अनुसार लापरवाह ही बनी रही। केवल खाना पूर्ति करती रही। सतर्कता नाम की कोई चीज न थी। दरवाजे पर पुलिस के पन्द्रह बीस जवान अपनी ड्यूटी निभा रहे थे।

चिंतित पति-पत्नी गेट का द्वार बन्द करके अन्दर कमरे में बतिया रहे थे। बच्चा बगल की खाट किलकारियां मार रहा था। उस समय उनकी दशा बिलकुल वैसी ही थी, जैसे तूफान में फँसे जहाज के यात्रियों की होती है। भय का साया सिर पर मंडरा रहा था।

ठीक बारह बजे एक हट्ठा कट्ठा जवान हाथ में फलों की टोकरी लेकर आया। उसका रोबीला चेहरा,बडी-बड़ी लाल आँखे और लम्बी मूंछे देखकर मालूम होता था मानो, कोई फौजी जवान हो। उसकी ऑंखें बड़ी डरावनी थीं। बदन पर खादी का कुरता और धोती। पैरों में नागरा के जूते थे। देखने में कोई सज्जन प्रतीत होता था।

आते ही पुलिस अधिकारी से मुखातिब होकर बोला-

"आई ऐेम सी.आई.डी. इन्सपेक्टर। ये मेरे बहन-बहनोई हैं। डाकुओं के आने के बारे में सुना,तो चला आया। डू यू वान्ट टू सी माई आइडेन्टिटी कार्ड?"

पुलिस इन्स्पेक्टर हकलाते हुए बोला-

"नो सर।"

इतना कहर उसने सी.आई.डी. आफीसर को सलूट मारकर सिपाहियों से कहा -

"बिल्कुल सावधान रहो। तनिक भी गड़बड़ न होने पाए।"

तब सी.आई.डी. ने कहा -

"अच्छा इन्स्पेक्टर ! मैं जरा भांजे से मिलकर आता हूँ। आप लोग कड़ी निगरानी रखें।"

दरोगा बोला -

"ओ के सर, हम सजग हैं। शिकायत का मौका न देंगे। दरोगा के खटखटाते ही दरवाजा खुल गया। सी.आई.डी. आफीसर ने जाते ही दरवाजा अन्दर से फिर बन्द कर लिया।

उसे देखकर शर्मा जी बोले-

" क्षमा कीजिए। मैंने आपको पहचाना नहीं। आप कौन हैं?"

सी.आई.डी. ने कहा -

" नमस्कार !बहन जी कहाँ है।"

शर्मा जी बोले -

" उस कमरे में। आइए !"

शर्मा जी ने फौरन पत्नी से कहा -

" अनुराधा, देखो कौन आए हैं, तुम्हारे भाई साहब। पर, मैंने इन्हें पहली बार देखा है।"

बहन जी नमस्ते कहकर सी.आई.डी. ने कमरे में प्रवेश करते ही पति-पत्नी को अपनी बातों में उलझा दिया। अनुराधा उसे टकटकी बाँधकर देखने लगी। इससे पहले कि वह कुछ कहती, बड़ा प्यारा बच्चा है क्या नाम रखा है?

सी.आई.डी. ने बच्चे को पलंग से उठाकर गोद में लेते हुए पूछा और तुरन्त अपनी कमर से पिस्तौल निकालकर धनी राम के सिर पर टिकाते हुए बोला- बातें बंद -

"होशियारी दिखाने की कोशिश मत करना। इसकी खोपड़ी उड़ जाएगी। इस टोकरी को खाली करके जितनी समाएं, उतनी अशर्फियां भर दो। वरना भेजा बाहर तो आएगा ही तुम दोनों भी मारे जा सकते हो।

अब शिकार पूरी तरह शेर के पंजे में था। इसलिए शोर मचाना व्यर्थ था। पति - पत्नी छटपटा कर रह गए। उनकी आनाकानी देखकर आगन्तुक ने कहा -

"सोच लो, अंजाम बहुत बुरा होगा। मुझे सारा माल नहीं बस आधा चाहिए और वचन देता हूँ कि इधर फिर कभी दुबारा नहीं आऊँगा। डर के मारे बेंत की टोकरी झटपट मोहरों से भरकर ऊपर से ढक दी गई।

तब सी.आई.डी. बोला -

"एक बात और कान खोलकर सुन लो। मैं अब जाता हूँ। तुम्हारा बच्चा 20-25 मिनट बाद यहाँ पहुँच जाएगा। लेकिन, इससे पहले पुलिस को बताने पर बच्चे से हाथ धोना पड़ेगा। जरा भी जल्दी मत करना। पछताने वाला काम करना अक्लमंदी नहीं मूर्खता है। इस पिस्तौल में छ: गोलियां हैं। कई लोगों का काम तमाम कर चुकीं हैं।"

यह कहते हुए वह बाहर निकल कर मेन गेट फिर बन्द कर दिया और दरोगा से बोला -

" इंस्पेक्टर ! मैं बच्चे को कुछ सामान वगैरह दिलाने जरा बाजार तक जा रहा हूँ। आप लोग सजग रहें। "

मैं दस पन्द्रह मिनट में आता हूं। उधर पुत्र रत्न खोकर पति-पत्नी कमरे में तड़प रहे थे। पर, व्याकुल गाय बछड़े के वियोग में रम्भा भी न सकती थी। उनकी मनोहारिणी मुस्कान गायब हो गई। काटो तो खून भी न निकले। सी.आई.डी. के एक हाथ में सोने से भरी टोकरी और बायें पर बच्चा था। मोड़ के पास जाकर उसने बच्चे को तौलिया बिछाकर सूनी सड़क के किनारे लिटा दिया और वहाँ खड़ी अपनी जीप में बैठकर सांय से भाग गया।

थोड़ी देर बाद बाजार से लौटती शर्मा जी की कुछ पड़ोसी महिलाओं ने फूल से बच्चे को उठा लिया। मासूम बच्चा सड़क पर चिल्ला रहा था। महिलाएं राम धनी को लेकर शर्मा जी के घर पहुँची तो पुलिस वाले एकदम सकते में आ गए। सबने अपनी-अपनी संगीनें संभाल लीं।

तभी दरोगा ने औरतों से कहा -

"ठहरो ! आगे मत बढ़ना, गोली मार दूँगा।"

स्त्रियों में एक वृद्धा भी थी। दरोगा की बात सुनते ही बुढि़या बिगड़ गई और बोली -

'क्यों साहब !गोली क्यों मारोगे? आए बड़ी गोली मारने वाले। अरे, पति-पत्नी को बाहर बुलाओ और पूछो कि क्या यह बालक उनका ही है।"

इतने में दरोगा बोला -

"देखो, मुझे धोखा देने की कोशिश मत करो। मेरा नाम ठाकुर ब्रहम सिंह है। मुझे धोखा देना कोई बच्चों का खेल नहीं। यह पहरा डाकुओं के लिए ही लगा है। अपनी चाल कामयाब न होते देखकर तुम जैसी बुड्ढी को मोहरा बना दिया उन्होंने।"

यह सुनते ही बुढि़या बोली -

"क्या ये औरतें तुम्हें चोर डाकू नजर आ रही हैं? अरे, आँख हैं या बटन। तुम्हारी तो मती मारी गई है।"

इतने में शोरगुल सुनकर शर्मा जी बाहर निकले। वह कलेजे के टुकड़े जैसे अपने बच्चे को पाकर अपना सारा दु:ख भूल गए। लेकिन लुट जाने का गम छिपा न सके। उनके मुँह से एक सर्द आह निकल गई।

पीछे से उनकी पत्नी भी आ गई और दरोगा से बोली -

"साहब ! जिसे रोकना था, जब उसे नहीं रोक सके तो इन्हें मत रोकिए । अब आप भी वापस जाइए। हम सब लुट गए। वह न ही सी.आई.डी. था और न मेरा भाई। वह खूंखार डाकू था।"

अनुराधा के स्वर में करूणा और व्यथा की तीव्र खटक थी।

वह पुलिस वालों से बोली -

" आप लोगों ने खूब ड्यूटी निभाई। आपकी पहरेदारी में भी हम बर्बाद हो गए। "

यह सुनते ही दरोगा ने तत्काल डकैत का पीछा किया। पर, तब तक वह चौराहा पार करते ही छू मंतर हो चुका था। पहरे पर तैनात पुलिस हाथ ही मलती रह गई। चिराग तले अंधेरा होता है, यह साबित हो गया।



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