THE ULTIMATE STATION
THE ULTIMATE STATION
काफी देर इंतजार के बाद भी जब ट्रेन आगे न चली तब उसने अपने बगल में बैठे लड़के से पूछा
"यार क्या नाम है तुम्हारा?"
"रवि कनौजिया"
"हाय, मैं दीपक राय इस स्टेशन पर गाड़ी कब से खड़ी है। आगे नहीं जा रही क्या खराबी है ?"
"कोई खराबी नहीं ये THE ULTIMATE STATION है यहाँ गाड़ियाँ आती हैं पर जाती नहीं।"
कहकर वह फिर बाहर देखने लगा बाकी के सहयात्री भी ऐसे बैठे थे जैसे उन्हें फर्क नहीं पड़ता ट्रेन के चलने न चलने से। दीपक ने स्टेशन पर उतर कर टी.टी से पूछने का विचार किया।
"बेवकूफ" बड़बड़ाता हुआ वह एक टी. टी. के करीब पहुँचा।
"यह ट्रेन कब चलेगी क्या समस्या है? ट्रेन की तरफ उँगली दिखाते हुए उसने पूछा"
"यहाँ सिर्फ ट्रेनें आती हैं जाती कहीं नहीं यह THE ULTIMATE STATION हैं।"
"हद है मैंने पूछा इलाहाबाद जाने के लिए क्या करना होगा?"
"तुम अब कहीं नहीं जा सकते। यह THE ULTIMATE STATION हैं।"
"जाऊँगा तो मैं जरूर भला तुम कैसे रोकोगे मुझे। उसे गुस्सा आने लगा था। अच्छा यहाँ कोई बस अड्डा है ?"
"हाँ स्टेशन के सामने ही है।"
दीपक तेजी से बाहर भागा ये क्या मजाक चल रहा है ? ये दोनों पागल हैं या मै कोई सपना देख रहा हूँ। स्टेशन के सामने ही उसे बस स्टैंड दिख गया। एक बस जो कुछ यात्रियों से भरी थी वह उसके कंडक्टर के पास पहुँचा।
"भाई इलाहाबाद का कितना लगेगा।"
उसने पलट कर उसे देखा और रटा रटाया जवाब दिया।
"यहाँ सिर्फ बसें आतीं है कहीं जाती नहीं।"
"अच्छा और आती कहाँ से हैं ?"
"हर जगह से।"
"क्या इलाहाबाद से भी?"
"हाँ"
"तो वहाँ से कौन सी बस आई थी।"
कंडक्टर ने उसी बस की ओर इशारा किया जो उसके पीछे कुछ यात्रियों को लिए खड़ी थी।
"तो ये वापस यात्रियों को लेने कब जाएगी।"
"यहाँ सिर्फ बसें आतीं है कहीं जाती नहीं।"
"फिर वही जवाब"
अब उसका धैर्य जवाब देने लगा। उसने कुछ देर तक उन लोगों को देखा जो वहाँ नजर आ रहे थे सब के सब किसी ट्रैजेडी फिल्म के कलाकार लग रहे थे। हार कर वह किसी और साधन की तलाश में बाहर आया। पूरे गाँव में घूमते हुए उसे काफी देर हो गई एक भी व्यक्ति हँसता मुस्कुराता न मिला। एक झोपड़ी के बाहर पूरा परिवार बैठा था। माता पिता दो बेटे। सभी उदास से बैठे थे। एक बुढ़िया बरगद के नीचे कुएँ के पास बैठी थी। न कोई हाट न बाजार जैसे पूरा गाँव किसी का मातम मना रहा था।
उसे एक घर के सामने एक साइकिल दिखी उसने तय किया कि वह इस मनहूस स्टेशन से बाहर जाने के लिए कुछ भी करेगा। उसने वह साइकिल ली और पतली पगडंडी पर चल पड़ा। वह कहीं भी पहुँचे बस स गाँव से बाहर जाना चाहता है। पर उसके आश्चर्य का कोई ठिकाना न रहा वह कोई भी रास्ता पक़ड़ता घूम कर वहीं आ जाता।
वही स्टेशन वही बस स्टैण्ड वही गाँव। आखिर हार मान कर वह वापस स्टेशन गया। ट्रेन अब भी वहीं खड़ी थी। सभी यात्री अपनी जगह पर बैठे थे। वह भी अपनी सीट पर बैठ गया। बगल में बैठे अपने हमउम्र लड़के से पूछा।
"तुम कब से यहाँ बैठे हो ?"
"तीन साल से जब इस ट्रेन का एक्सिडेंट हुआ था तब से।"
"एक्सिडेंट ?"
"हाँ।"
दीपक को याद आया तीन साल पहले जब वह इण्टर में था इलाहाबाद जाने वाली इसी ट्रेन का एक्सिडेंट हुआ था। कई यात्री मारे गये थे। कई घायल थे। तुम तब से इस स्टेशन पर फँसे हो?
"हाँ हर साल उसी दिन उसी समय यह ट्रेन अपने नये यात्रियों को लेने जाती है फिर यहीं खड़ी हो जाती है।"
"तुम्हारा मतलब अब मैं अगले साल ही अपने घर जा सकूँगा ?"
"नहीं घर तुम नहीं जा सकते। याद करो तुम इस ट्रेन को कैसे पकड़ सके। "
उसने दीपक को गहरी आँखों से देखा। दीपक ने खुद को स्टेशन पर भागते देखा। वह तेजी से भागते हुए सड़क पार कर रहा था कि एक कार से टकराया होश में आते ही वह पहले तो तेजी से भागा फिर अचानक उसे याद आया कि वह क्या कर रहा है उसने पलट कर देखा लोग इकट्ठा हो रहे थे। सामने जमीन पर कोई लेटा हुआ था। धड़कते दिल के साथ वह आगे बढ़ा उस जमीन पर पड़े शख्स को देखते ही वह चौंक गया यह शख्स कोई और नहीं दीपक खुद था। अब उसे याद आया कि वह अपना शरीर तो वहीं छोड़ कर भागा था।
"अब तुम कभी घर नहीं जा सकते।"