वह अविस्मरणीय रात
वह अविस्मरणीय रात
उन दिनों मुझे बड़े बाले(इयर रिंग्स) पहनने का बहुत शौक था। मेरे पति अक्सर कहते , " एक दिन इन बालों के चक्कर में तुम्हारे कान भी न कोई काट ले। "उन दिनों झपटमारी की बहुत वारदातें हुआ करती थीं। मगर मैं एक कान से सुनती दूसरे से निकाल देती, क्योंकि मुझे बाले पहनना बहुत पसंद था, कुछ एक्स्ट्रा लार्ज बनवाए भी थे। यह मई- जून का महीना था। विद्यालयों में गर्मी की छुट्टियां हो चुकी थीं। एक शाम हमने बच्चों के साथ बाहर खाना खाने का प्रोग्राम बनाया। बच्चे छोटे ही थे। लगभग 3 ओर 6 वर्ष के। उन दिनों साइकिल रिक्शे ही चला करते थे। हम भी एक साइकिल रिक्शा करके निकले। खाना खा कर जब हम लौट रहे थे, तो रात के करीब 9.30 बज रहे होंगे। रास्ते में सरकारी कन्या विद्यालय पड़ता था, घुप्प अंधेरा था। सड़क पर एक भी स्ट्रीट लाईट नहीं जल रही थी। जब वहां से हमारा रिक्शा गुजर रहा था, मैं मन ही मन राम- राम जप रही थी, बेहद सावधान होकर बैठी थी, डर के कारण क्योंकि पूर्व में वहां कई झपटमारी की वारदातें हो चुकी थीं।
बड़ी बेटी पिता की गोद में थी और छोटी मेरी। इस बीच बेटी ने पूछा," मम्मी स्कूल की तो छुट्टियां हैं, फिर यहां स्कूल में बिजली कैसे जल रही है ?" मैंने स्कूल बिल्डिंग की ओर देखा और कहा," शायद चौकीदार रहता होगा उसने जलाई हो" उसी समय मुझे अपनी गर्दन और कान पर किसी का झपट्टा सा महसूस हुआ, मैंने सोचा बंदर होगा क्योंकि यहां बंदरों की बहुतायत है, किंतु तभी क्या देखा कि यह हरकत रिक्शे के साथ -साथ साइकिल पर सवार दो लड़कों, की थी। एक साइकिल चला रहा था और दूसरा आगे डंडे पर बैठा था। वह फिर से मेरे कान और गले पर झपटने वाला था। मैं इतना घबरा गई की मेरे गले से आवाज ही नहीं निकल रही थी। मैं चिल्लाना चाहती थी, मेरी फंसी- फंसी आवाज़ से या कैसे मेरे पति का ध्यान मेरी तरफ आया। उन्होंने फौरन रिक्शे पर बेटी को खड़ा किया और नीचे कूद गए। मैंने देखा एक लड़का भाग रहा है और ये उसके पीछे दौड़े रहे हैं। दूसरा मुझे दिखाई नहीं दिया, शायद दूर कहीं खड़ा होकर अपने साथी का इंतजार कर रहा होगा। अंधेरे में पीछा करते-करते मेरे पति एक ऐसी जगह पहुंचे जहां किसी दूसरे स्कूल की बाउंड्री वॉल थी, अब वह लड़का भाग नहीं सकता था। उसने तुरंत छुरा निकाल लिया और मेरे पति पर वार करने के लिए हाथ उठाया। अंधेरे में मैं इन पर छुरा तनता देखकर रोने ,चिल्लाने लगी, बच्चे भी चिल्लाने और रोने लगे। मैंने रिक्शे वाले से कहा," भैया, इन्हें बचा लो, बचा लो "। पता नहीं शायद वह उनसे मिला हुआ था, जो हमें उस अंधेरे रास्ते से लाया था, जो कुछ भी हो, उसने कहा,"का हम मरे जाई "? वह ट्स से मस नहीं हुआ, वहीं हाथ बांधे मूर्ति की तरह खड़ा रहा। मेरे पति के पास अपना बचाव करने के लिए कुछ भी नहीं था। हमारी चीखें न जाने कितनी दूर तक पहुंच रही थीं कि सौभाग्य से रेलवे स्टेशन से उसी समय कुछ सवारियां दूर से ही चिल्लाते हुए आती सुनाई दीं। "क्या हो रहा है, कौन चिल्ला रहा है ,वहां क्या हो रहा है ?" कहती हुई पहुंच गईं। बस, उनका शोर सुनना था कि वह लड़के नौ- दो ग्यारह हो गए। हमने उन सवारियों का और अपनी किस्मत का आभार किया। पुनः रिकशा चला और जब हम कुछ दूर पहुंचे, जहां रोशनी थी मेरे पति ने मेरी ओर बिना देखे, कुछ नाराजगी से कहा," ले गए सब ?" मैंने शर्मिंदगी से मगर दबी खुशी से कहा," नहीं, कुछ नहीं ले गए।" उन्होंने मेरी तरफ देखा, क्योंकि इस बीच मैंने बाले और चैन उतार कर रुमाल में बांध लिये थे, क्योंकि मुझे रिक्शे वाले की नीयत से भी डर लग चुका था । हम घर पहुंचे। उस दिन के बाद से आज तक मैंने उन बड़े बालों को घर से बाहर कहीं नहीं पहना और अब भी अगर बाहर सफर करना होता है तो गहने पहनने से परहेज़ करती हूं। वह घटना याद आ जाती है। मेरे शौक की वजह से उस दिन अनहोनी हो सकती थी।