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Lokanath Rath

Others

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Lokanath Rath

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बचन (भाग -बाविस )....

बचन (भाग -बाविस )....

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बचन (भाग -बाविस ).........

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आकाश के नई बितरक का काम के लिए सबकुछ तैयार हो गया। बिकाश जी उसी काम पे पुरे लगे हुए थे। उधर मुम्बई मे भी अशोक ने उस कम्पनी के दप्तार जाकर काम को आगे बढ़ाने मे जुटा था। एक शुभ दिन देख के इस का सुभारम्भ करने को सुचित्रा देबी बोले। पण्डित जी को घर पे बुलाए। तब घर मे सुचित्रा देबी, आशीष और बिकाश जी बैठके पण्डित जी को एक अच्छा दिन निकलने को बोले। पण्डित जी आशीष और अशोक का कुण्डली देख के चार दिन बाद के दिन निकाले। सबको ये ठीक लगा।तब सुचित्रा देबी ने बिकाश जी से बोले, "अगर ये दिन अच्छा है, तो कियूँ हम अशोक और आशा की सगाई भी कर दे उस दिन? आप को अगर कोई दिक्कत नहीं है तो ये शुभ काम भी कर देते है। हमारे समदी जी और समदन जी भी तब यहाँ होंगे। हम ज्यादा लोगों को नहीं बुलाएंगे, सिर्फ नजदीक के रिश्तेदारों को बुलाकर कर लेंगे।" ये बात सुनके बिकाश जी बोले, " मुझे कोई दिक्कत नहीं होगा। जो हमारे बच्चों के लिए अच्छा होगा, उसे करने मे कैसा दिक्कत। आप अशोक से बात कर लीजए। वो उस फिन आसकता है या नहीं। उसके बाद फिर हम निर्णय ले सकते है।" ये बात सुचित्रा देबी को पसन्द आया।उन्होंने तुरन्त अशोक को फोन लगाए। जब अशोक ने फोन उठाया तो उन्होंने बोले, " बेटा अब तुम कहाँ हों? सब ठीक ठाक चल रहा है तो? तुमसे कुछ बात करनी थी।" अशोक ने तुरन्त बोला, " माँ, मे ठीक हुँ। आप कभी भी मुझे कुछ भी बोल सकती है। इसके लिए मुझे पूछने की क्या जरुरत है।" तब सुचित्रा देबी बोले, " तुमकी दो दिन के बाद यहाँ आना है। आज से चार दिन बाद तुम दोनों भाइयों का नया काम के उद्घाटन होगा, उसी दिन शाम को तुम्हारा और आरती की सगाई भी है। तुम दोनों के शादी हम पाँच छे महीने वाद आराम से करेंगे। कियूँ की दिन बड़ा अच्छा है, इसीलिए सगाई कर देने मे भलाई है। उसीलिए तुमको एक दिन पहले आना होगा।" अशोक ने उनको आनेके लिए कहा। तब सुचित्रा देबी ने पण्डित जी को उस दिन दुकान का उद्घाटन सूबे और अशोक के सगाई शाम को करने को कहा। अब इस बात पे सबका सहमति हों गया। पण्डित जी भी उठके गए। बिकाश जी ने फोन करके निशा देबी को सगाई के बारे मे बोलदिए। फिर वहाँ से उठकर बिकाश जी और आशीष दुकान के लिए निकले।


वो लोग जाने के बाद सुचित्रा देबी फोन करके महेश जी को दुकान के उद्घाटन और सगाई के बारे मे बोले और उनको अमिता देबी के साथ रहकर सब कुछ सँभालने को बोले। फिर सुचित्रा देबी ने उनकी रिस्तेदार को भी सगाई मे अनेको बोले।


वक़ील साहब के बोलने के हिसाब से दो दिन हों गया था। महेश जी ने मकान मालिक के साथ बैठके हिसाब करके उनकी पैसे दे दिए। फिर वहाँ से उठकर महेश जी ने वक़ील साहब जे पास गए। उनको देख के वक़ील जी ने बोले, " मे आप को फोन करनेवाला था।आप के बिक्री कर का काम निपट गया और ये उसका कागज अपने पास रखिएगा।अगर आप ब्याँक के काम निपटा दिए तो अब आज सरोज को लेकर तीन बजे कचेरी आजइए, दुकान कानूनन उसके नाम कर देंगे।" तब महेश जी बहुत ख़ुश हुए और बोले, "साहब आपका बहुत धन्यवाद करता हुँ। आप जैसा बोले आज सरोज को लेकर मे कचेरी आजाऊँगा और ये काम भी कर लेंगे।तब थोड़ा चैन से मे शो सकूंगा।" फिर महेश जी ने वक़ील साहब को बोलके अपना दुकान गए। वहाँ वो सरोज को बोले की तीन बजे कचेरी जाना होगा और वहाँ ये दुकान उसके नाम वो करदेंगे। सरोज बहुत ख़ुश होगया। अपने साथियों के साथ मस्ती करने लगा। तब समय बारहे बजे थे। महेश जी दुकान के बाहर कुछ समय बिताने के वाद अपनी पड़ोस के दुकानदार के पास गए। वो उनका तक़लिब समझ सकता था। उनको देखकर वो बैठने को बोले। तब महेश जी ने बोले, "भाई आज मेरा इस दुकान मे आखिरी दिन। अब सरोज को उसके मर्जी से चलाना है। जानता हुँ आप सबकी तक़लिब, मुझे माफ कर दो। अब मेरे स्तिति आप को बोल नहीं सकता हुँ। आप लोग साबधानी से अपना कारोबार कीजिएगा। मे जब कभी मन करेगा आकर मिललिआ करूँगा। "ऐसे बात करते करते दो बज चूका था। महेश जी पास की दुकान से नास्ता कर लिए। उसके बाद वो दुकान जाकर सरोज को बोले कचेरी चलने के लिए। सरोज अपनी गाड़ी लेकर उनके साथ कचेरी के लिए अलग से निकला। वो लोग पौने तीन बजे कचेरी मे पहुँचे। वक़ील साहब को महेश जी मिले। तब वक़ील साहब उनको और सरोज को जो कागज बनवाए थे दिए पढ़के हस्ताख्यर करने के लिए। उसको पढ़ने के बाद दोनों ने हस्ताख्यर किए ;फिर मजिस्ट्रेट के सामने जाकर उसको कबुले। उसके बाद सरकारी थप्पा उस कागज पर लग गया। वहाँ से निकलते वक़्त वक़ील साहब को महेश जी को सुक्रिआ अदा किए। उस कागज का एक कॉपी लेकर महेश जी वहाँ से निकले। तब वो सरोज को बोले," अब ये दुकान तेरा नाम पर होगया। अभी भी समय है अपने आप को सुधार लो। दुकान को ठीक से चलाओ। ये गैर क़ानून के काम तुम कितने दिन कर पाओगे? एक ना एक दिन तो क़ानून के हात पकड़ा जाओगे। अभी भी वक़्त है खुद को बचा लो। मे बचन देता हुँ हम कभी भी तुमसे नहीं मिलेंगे। तुम अभी आज़ाद हों।" सरोज ने उनकी बात सुनकर बोला, " मुझे सिखाने की कोई जरुरत नहीं। " इतना बोलके वो वहाँ से चला गया। महेश जी अपनी उदाश मन को लेकर घर के लिए निकले।उनके आँखों मे आंसू था।



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