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Anita Chandrakar

Children Stories

4.8  

Anita Chandrakar

Children Stories

बदलाव

बदलाव

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चारों तरफ हरे भरे पेड़ों से घिरा गाँव का वो सरकारी विद्यालय सहज ही हर किसी का ध्यान आकर्षित कर लेता था। अच्छी पढ़ाई के कारण उस विद्यालय की ख्याति दूर दूर तक फैली थी।उसी सरकारी विद्यालय में दीपा कक्षा छटवीं में नव प्रवेश ली थी।

खेलकूद का कालखंड था , विद्यालय में सभी बच्चे अपने अपने समूह के साथ खेलकूद में मगन थे, बच्चों की धमा चौकड़ी और खिलखिलाहट की आवाज दूर दूर तक सुनाई दे रही थी। पर दीपा गुमसुम सी अकेले एक कोने में बैठी थी, कोई उसकी उदासी को देख ही नहीं पा रहा था। अभी तक उस नए विद्यालय में उसका कोई दोस्त भी नहीं बन पाया था। दीपा के गाँव में केवल प्राथमिक शाला थी, इसीलिए अधिकांश लड़कियाँ पाँचवी कक्षा के बाद अपनी पढ़ाई छोड़ देती थी। दीपा आगे पढ़ना चाहती थी उसने अपनी सहेलियों को मनाने की कोशिश की। उसने कहा - " पढ़ना लिखना बहुत जरूरी है, पढ़ाई से ही हमारा जीवन खुशहाल बनेगा और दुनिया में हमारी एक पहचान बनेगी।"

"हमारे घर वाले हमें उतनी दूर नहीं भेजेंगे, वे हमें पढ़ाना ही नहीं चाहते।दीपा तुम पढ़ लिखकर अपने सपने पूरे करो , " उनकी सहेलियों ने कहा।

" मैं अकेली उतनी दूर कैसे जाऊँगी बहन, तुम लोग भी चलोगे तो दूरी का पता नहीं चलेगा ," दीपा ने कहा।

दीपा के समझाने पर भी उनकी सहेलियाँ आगे पढ़ने के लिए तैयार नहीं हुई, इसीलिए अपने गाँव से दीपा अकेली ही आगे की पढ़ाई कर रही थी, वह चार किलोमीटर साइकिल चलाकर विद्यालय जाती थी। अपने सपने को पूरा करने ले लिए उसने जिस विद्यालय में प्रवेश लिया वह उसके लिए बिल्कुल अलग था। उस विद्यालय के शिक्षक और वहाँ पढ़ने वाले सभी बच्चे उसे अजनबी लगते थे। फिर भी दीपा अपने आपको ढालने की कोशिश कर रही थी। वह सबके साथ घुल मिलकर मिलकर रहना चाहती थी, जिसके लिए उसने पहल भी की।

परंतु जब भी दीपा अपनी कक्षा की लड़कियों के पास जाती तब सभी लड़कियाँ उसे ये कहकर चिढ़ाती थी कि "'काली कलूटी बैगन लूटी, काले कौएँ की आँख फूटी।" और ऐसे ही कई शब्दों से दीपा का दिल दुखाने की कोशिश करती। खेलना तो दूर कोई उसके साथ बात भी नहीं करती थी। ये सब देख सुनकर दीपा की आँखों से अश्रुधार बहने लगते।

दीपा का गहरा साँवला रंग उसके दुख का कारण बनता जा रहा था।जो भी उसे देखता ,उसके रंग रूप को लेकर ताने मारता। "इतनी काली है कहाँ से दूल्हा लाएँगे इसके लिये?" ये वाक्य तो बचपन से सुनती आ रही थी वो।"अरे दीपा की माँ , बेटी को कोई उबटन, क्रीम तो लगाओ ,थोड़ा ध्यान दो इसके रंग रूप पर।" बाजू वाली सुखिया काकी हमेशा दीपा की माँ को यही सुनाती रहती थी।

नन्ही सी बच्ची ख़ूब रोती थी। अपनी माँ से कहती , "माँ मुझे कहीं नहीं जाना है सब मुझे चिढ़ाते हैं या फिर मेरे चेहरे पर खूब सारा पावडर क्रीम लगाकर मुझे सुंदर और गोरी बना दो। तभी मैं बाहर निकलूँगी।"

दीपा की माँ अपनी बिटिया से बहुत प्यार करती थी, उसके दिल का टुकड़ा थी वो।वह उसे बड़े प्यार से अपने तरीके से समझाने की कोशिश करती थी।

"मेरी बेटी तो हीरा है ,सबसे होशियार सबसे समझदार, एक दिन पढ़ लिखकर पूरी दुनिया में हमारा नाम रौशन करेगी। रंग रूप तो चार दिन का है बेटा, पर अच्छे गुण हमेशा काम आएँगे।"

माँ के समझाने पर वह पुराने परिचितों के व्यंग्य बाणों पर ध्यान देना छोड़ दी थी। पर इस नई शाला में दीपा को कुछ समझ नहीं आ रहा था। अनजान जगह में यूँ अकेली , वो कैसे पढ़ पाएगी? उन लड़कियों के मुँह से निकलने वाले शब्दबाण उसके हृदय को छलनी छलनी कर देते थे। उसने सोचा था पुराने विद्यालय की तरह यहाँ भी उसकी कुछ सहेलियाँ बन जाएगी। पर यहाँ तो स्थिति और भी ज्यादा खराब थी, लड़कियाँ रंग रूप को ही महत्व देती थी।

दीपा का मन नये विद्यालय में नहीं लग पा था , वह बड़ी मुश्किल से विद्यालय जाने के लिए तैयार होती थी। पढ़ाई से भी उसका मन उचटने लगा। वो सोचती कि ऐसी पढ़ाई का क्या मतलब जो रंग रूप के कारण इंसानों में किये जाने वाले भेदभाव को खत्म न कर पाए जो मन को साफ न कर पाए।अब मुझे ऐसे विद्यालय में नहीं पढ़ना। नाम बड़ा दर्शन छोटा है यहाँ तो।

अब दीपा अपने गाँव के ऐसे बच्चों के साथ खेलती रहती थी जो विद्यालय का मुँह ही नहीं देखे थे या किसी कारणवश बीच में पढ़ाई छोड़ दिये थे। दीपा के माता पिता उसे समझाते तब ले देकर वो विद्यालय जाती थी। उस पर माँ की समझाइश का असर कम और सहपाठी लड़कियों के तानों का असर ज्यादा होने लगा था।

विद्यालय में रोज रोज ताने सुनकर दीपा खुद से चिढ़ने लगी।अभी वह छोटी थी फिर भी लोगों से मिलने वाली उपेक्षा को बहुत अच्छे से समझती थी। पर अपनी पीड़ा किसे बताये वो, बस भीतर ही भीतर घुटती जा रही थी।

उसी समय उनके विद्यालय में हिंदी की नई शिक्षिका आई। दिखने में सुंदर, मध्यम कद काठी और लंबे काले घने बाल थे उसके। उसकी आवाज बहुत मधुर थी। उस विद्यालय में अभी वह नयी थी इसलिए वह सबके आकर्षण का केंद्र थी। बच्चों के बीच उसी की चर्चा चलती रहती। दीपा उन सबकी चर्चाओं से दूर अपने भविष्य के लिए चिंतित थी। शिक्षिका पहले ही दिन बच्चों का मन जीत ली।

वह इतने सुंदर और रोचक तरीके से पाठ पढ़ाती थी कि सभी बच्चे ध्यान मग्न होकर सुनते थे। दीपा को भी इस विद्यालय में पहली बार कक्षा में अच्छा लगा, वह उस शिक्षिका से धीरे धीरे जुड़ने लगी और पढ़ाई में मन लगाने लगी। पर अभी भी वह अकेली ही बैठी रहती थी। नयी शिक्षिका की नजर दीपा पर गई। दीपा का ऐसे सबसे अलग चुपचाप बैठे रहना ,उदास रहना, शिक्षिका के मन को परेशान कर रहा था।

शिक्षिका दीपा के इस व्यवहार का कारण जानने की कोशिश की। दीपा के सिर पर प्यार से हाथ रखकर उसने पूछा - " दीपा बेटा अकेली क्यों बैठी हो जाओ सबके साथ खेलो। देखो सभी बच्चे कैसे मजे ले रहे हैं।तुम ऐसे उदास क्यों रहती हो बेटा ,मुझे बताओ।" शिक्षिका का स्नेह पाकर दीपा उनके गले लगकर जोर जोर से रोने लगी और सारी बात बता दी। शिक्षिका को ये जानकर बहुत आश्चर्य हुआ कि ये छोटे छोटे बच्चे भी रंग रूप को लेकर इतना भेदभाव करते हैं। व्यंग्य करना वे कहाँ से सीख गए।

फिर अगले दिन शिक्षिका बच्चों को कहानियों और उनके उदाहरणों के द्वारा समझाई कि बाहरी रंग रूप से कुछ नहीं होता, हमें स्वच्छ और स्वस्थ रहना चाहिए, अपने मन को सुंदर बनाना चाहिए।मनुष्य का साँवला रंग अभिशाप नहीं है। हम सबको इस दुनिया में प्यार से रहना है और इसे सुंदर बनाना है ,सभी के साथ अच्छा व्यवहार करना है।"

इसी तरह शिक्षिका बच्चों को पढ़ाई के साथ साथ जीवन जीने की कला भी सिखाती थी, जिससे उन बच्चों में बदलाव आने लगा अब वे दीपा के साथ अच्छा व्यवहार करने लगे। पर सबसे ज्यादा बदलाव दीपा में आया।वह मानसिक रूप से मजबूत होने लगी ,पढ़ाई में पूरा ध्यान लगाकर अपनी जिंदगी सँवारने की राह में आगे बढ़ने लगी।

और उनकी शिक्षिका दीपा के इस बदलाव से बहुत खुश हुई।



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