वो चाहता है कि मैं अपना घर बना लूँ,
उसे खबर तक नहीं कि घर की बुनियाद कौन है।
तुमसे बिछडना कुछ इस तरह तो होता,
तुम जा रहे होते और मेरी जान निकल जाती...
तुम्हारी हर एक याद मैं ले जाऊंगा,
लोग गलत कहते हैं कि साथ कुछ नहीं जाता...
बहुत इतराया था अपनी ऊंची उडानों पर,
फिर एक दिन वक्त नें सारे पंख नोंच डाले...
वही आलम हुआ फिर से
वही रंज-ओ-गम का फसाना है
मैं तुम्हें भूल तो जाऊं लेकिन
तुम्हें अभी फिर से याद आना है...
लौटकर वो अब क्या आयेंगे,
बडे इंतजाम से वो घर से चले थे...
मेरे आंखों को मुझसे बस इतनी शिकायत है,
इतनें दर्द में है तो जी भर कर रो क्यों नहीं लेता?
कुछ तो मजबूरियां रही होंगी उसकी
यूँ ही न मेरे तोहफे फेंक दिये होंगे
कुछ रिवाजों नें उसके बढते कदम
इधर आनें से रोक दिये होंगे
आंधियां गमों की बहुत आयी मगर
उसनें जलते दिये यूँ ही नहीं छोड दिये होंगे...
मेरा कुछ यूँ तमाशा बनाया गया,
हँसा-हँसा कर कई दफ़ा रुलाया गया...