आश्रित कौन
आश्रित कौन
वो पूछते है वो क्या है
जो हर रोज़ तुझ में हौसला जगाता है ?
बंद दरवाजों और खिड़कियों में भी
तुझे रोशन कर जाता है।
नई उमंग और ख्वाहिशों से
तेरा परिचाय कराता है
इस हाल में बिन मुखौटा
कहाँ कोई मुस्कुरा पाता है ?
क्या तुम्हारा मन खुदा की
इबादत कर पाता है ?
क्या कभी अपनी इच्छाओं
के दफन होने पर
क्रोध नहीं सताता है ?
ये सब सुनकर मेरा मन
सच में ये सोच मुस्कुराता है
की मुझे बेचारा कहने वाला
मुझसे ही सहानूभूति चाहता है।
नज़र होकर भी ये
सही नज़रिया का
हौसला खो चुका है
कामयाबी की चकाचौंध में रहकर भी
इसका मन रोशन ना हो सका है।
इंसानियत की राह से भटक कर
ये अपना परिचय ही खो चुका है
शायद मुस्कुरा कर जीना का
ये मतलब भी भूल चुका है।
जिस खुदा ने सब दिया इसे
उसी की रज़ा पे सवाल कर रहा है
ये इबादत क्या करेगा जो
क्रोध के वश में मर रहा है।
नादान खुद को जाने बिना ही
मुझे अपाहिज और
आश्रित समझ रहा है।