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Amit Kumar

Abstract

5.0  

Amit Kumar

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अपने-अपने राम को

अपने-अपने राम को

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जाने कितने शून्य

पनप रहे हैं 

इस धरा के आग़ोश में

जाने कितने बुद्ध

शांत है 

अपने ही सन्तोष में।

 

जाने कितनी जानकी

ढूंढ रही है राम को

जाने कितनी मीराएँ

खोज रही घनश्याम को।


वो ही मौला

वो ही गुरु है

वो ही सत्य 

वो ही साईं।


जिसने अपनी 

साख न जानी

क्या समझे वो 

पीर पराई।


जाने कितने शिव धनुष है

जाने कितने परशुराम है

रावण तो वो एक ही ज्ञानी

ख़त्म हो सकी न जिसकी कहानी।


मर कर भी जो

मर न सका है

वो ही तो अविराम है

जिसने सबको बांध लिया है।


सबका अपना काम है

जिसके मोह में 

लूट रहे हैं 

उसका कोई मोल नहीं है

जिसका मोल लगाते फिरते

वो ही तो अनमोल है।


जाने कितनी शबरी बैठी

राह में ढूंढे राम को

जिसने अपना 

कुछ न तज़ा हो।


वो क्या समझेगा राम को

राम नाम पर लड़ रहे हैं

राम में रमता कोई नहीं

कान्हा को जो चोर है कहते

क्या उनके मन में चोर नहीं।


चोर की चोरी वो ही जाने

जो जाने मनमोहन के राम को

राम कहो कृष्ण कहो

या पुकारो किसी भी नाम से।


जिस दिन उसके दिल तक पहुंचे

कोई अड़चन न राह में

इतनी बात बताने आये

जग में तुलसीदास जन आम को।


इधर उधर जिसे ढूंढ रहे हो

अपने मन मे ढूंढों

अपने मन से ढूंढों

अपने अपने राम को।


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