बंद परिंदे
बंद परिंदे
आकाश की खुली हवाओं को,
वे बंद परिंदे क्या जाने ?
ऊँची पर्वतमालाओं को,
वे बंद परिंदे क्या जाने ?
जिसने न कभी उड़ना सीखा,
ना डाली पर चढ़ना सीखा,
उन ऊँची-नीची राहों को,
वे बंद परिंदे क्या जाने ?
पिंजरे को ही जीवन समझा,
दाना-पानी उद्देश्य रहा,
उड़ने की आस न जगी मन में,
हर-पल निरुद्देश्य रहा
हैं आसमान में अरि कितने ?
जिसने खग को उड़ने न दिया,
कितने अवरोध पड़े पथ में ?
वे बंद परिंदे क्या जाने ?
अब बारी बंद परिंदों की,
पिंजरे का बंधन तोड़ेंगे,
उड़ना होगा हर हाल में अब,
आकाश से नाता जोड़ेंगे।
अनवरत कृत्य अभ्यासों से,
पंखों में ताकत आएगी,
तब बदलेगा यह समाज,
ये बंद परिंदे सच माने।