बस यूँ ही
बस यूँ ही
प्रिय डायरी,
जिन्दगी यूँ जलेबी सी उलझती गई,
जैसे बड़ी शिद्दत से बनाया हो जैसे।
चाशनी रूपी खुशियां तो ऐसे ही थीं,
मानों हमें हँसने को कहती होंं जैसे।
दुख को समेटे थे हम यूँ बेहिसाब,
रो पड़ते तो जमाना हँसता तमाम।
वो बचपन के झूले टँगें थे यूँ खूँटे,
कोई लम्बा अरसा हो बीता जैसै।
चलो लौट चलते हैं हम अपने देश,
वो नदियां, वो तालें, वो नहरें वो झरने।
जिन्दगी की शाम यूँ ही ढल न जाए,
लौट चलते हैं गांव रात होने से पहले।