डोर
डोर
हम सब उस ईश्वर की बनाई,
हैं रँग - बिरंगी कठपुतलियां,
वो हमें पकड़ कभी घुमाता,
कभी फेंक दूर फिर खिलखिलाता।
हम दोष एक - दूसरे को देते,
कभी अपनी नज़र उतार उसे फेंक देते,
वो तब हौले से फिर मुस्कुराता,
हमारी नासमझी का जशन मनाता।
हमारा रँग - रुप सब उसका दिया,
इस हाड़ - मास में प्राण उसने भरे,
हम तब भी इतने नासमझ,
कि समझ ना पाये सिर्फ उससे डरें।
रोज़ हम ना जाने कितने पाप करते,
फिर हर पाप का दोष उस पर मढ़ते,
वो तब भी डोर को थामे रहता,
एक और मौका हमें देता रहता।
पर जब हमारे पापों का घड़ा भर जाता,
तब उसे कोई भी मंत्र नहीं भाता,
वो खींच डोर हमें जकड़ लेता,
किसी कठपुतली की भांति तब मसल देता।