"धूप से बड़ी भूख"
"धूप से बड़ी भूख"
जेष्ठ मास की दोपहर,
सूरज उगल रहा है आग,
हवाओं ने भी
बदल लिया है मिजाज।,
पंछी पेड़ों पर
पशु पेड़ के नीचे
दुबक गए हैं
मनुष्य घरों में छुप गये हैं ।
रामू मोची ,
आग उगलती धूप में ,
फुटपाथ पर बैठा है ।
कटी फटी छतरी के सहारे,
धूप संग ड़टा है,
ग्राहक के इंतजार में
आंखें बिछाये रहता है
बीच बीच में ,
टाट के नीचे रखी रेजगारी
गिनता रहता है
शाम के आटे दाल का,
हिसाब लगाता रहता है ।
जब तब पेटी का,
तकिया बना, सुस्ता लेता है ।
गर्मी को भगाने ,
गर्म पानी पी लेता है ।
रामू को
धूप ताप नहीं सताती है,
रामू को
परिवार की भूख सताती है ।
इसीलिए रामू,
जेठ की दुपहरी सह जाता है।
जब भी कोई ग्राहक, आता है
रामू के लिये जैसे
ठंडी हवा का झौंका लाता है।
धूप के ढ़लने तक
भूख की खातिर
जुटा रहता है
राशन के इंतजार में
परिवार बैठा होता है
दोस्तों !तुम ही कहो,
धूप बड़ी है,या भूख।
निश्चित ही
धूप से बड़ी है भूख।