कायनात
कायनात
गुजर जाता
तेरी राहों से
चुपचाप मैं भी
मेरी मिट्टी मगर
नहीं थी ऐसी
की तेरा होकर
वक्त के थपेड़ों
में तुझे भूल मैं जाता ।।
कसीदा तो पढ़ना
सीखा नहीं मैंने
किसी के नाम का
न जाने तेरे नाम
में क्या छुपा है
कि भूला ये ईल्म भी मैं ।।
परस्तिश की पाबन्दियाँ
मुझको हिला न सकी
हक से मुझे हरगिज़
और मैं पूजा की
रीति निभाता रहा
समय की धार में बन्ध कर ।।
सुबह उठता हूँ तो तेरी
याद भी उठ जाती है साथ मेरे
साँझ ढले जो साथ
सोई थी अलसाई सी
साथ मेरे ।।