कह दो कोई मंजिल से
कह दो कोई मंजिल से
कह दो कोई मंजिल से
आसमान में उड़ने की
उड़ान अभी बाकी है,
लोगों को पहचान अपनी
बताना अभी बाकी है।
फिसली हुए बाजी को
जितना अभी बाकी है
कोसों दूर मंजिल पे
जाना अभी बाकी है
कह दो कोई मंजिल से...
कह दो कोई मंजिल से
मैं दूर खड़ा,
पर मजबूर नहीं हूँ
है गुरुर जरा,
पर मग़रूर नहीं हूँ
कह दो कोई मंजिल से...
कह दो कोई मंजिल से
कि रास्ते का काँटा
अभी टला नहीं है
पर दिन भी
अभी ढला नहीं है...
दिन ढल जाए भी
तो क्या है ?
रात का जुगनू बचा हुआ है
टिमटिमाती जुगनू से ही
तय करना पूरी सफर है
कह दो कोई मंजिल से...
कह दो कोई मंजिल से
रात का जुगनू
अभी बुझा नहीं है
सहारा तिनका का ही काफी है
फिर तो इतने जुगनू साथ है मेरे
कह दो कोई मंजिल से...
कह दो कोई मंजिल से
मैं अभी थका नहीं हूँ
देख के मुश्किल घड़ी को
मैं अभी रुका नहीं हूँ...
देख के मंजिल की दूरी को
मैं झुका भी तो नहीं हूँ
देख के इतनी मजबूरी को
कह दो कोई मंजिल से...
कह दो कोई मंजिल से
हौसला अभी जवां है
मैं, मेरा कारवां है
मेरे अंदर मंजिल पे
जाने का एक भाव है
जख्म का एक गाँव है....
सह-सह के हर जख्म को
पाना मंजिल की छाँव है
चलते जाना है हर कदम
हर कदम पे मुश्किल विराजमान है
हिम्मत से करना है अब
हर मुश्किल का सामना....
ना कोई अब नाव बची है
सिर्फ बचा अब दांव ही दांव है
कह दो कोई मंजिल से...
कह दो कोई मंजिल से
कि ना इतराये इतना तो अच्छा है
ना छितराये इतना तो अच्छा है
मैंने खेला अब हर दांव है
चल चला जो अब हर पांव है
कह दो कोई मंजिल से...
कह दो कोई मंजिल से
छूटा नहीं, वो घोंसला है
टूटा नहीं, वो हौसला है
झूठा नहीं, वो फैसला है
मिटा नहीं, वो फासला है...
करना, हर मुश्किल आसान है
बताना, हर कदमों में जान है
हर जान, मंजिल पे कुर्बान है
पाना मंजिल को,
आन, बान और शान है
कह दो कोई मंजिल से...।।
~©नीरज कुमार "समस्तीपुरी"