मंजिल की तलब
मंजिल की तलब
मंजिल की तलब
अब हो गई हमको,
सकून के पल अब
बिल्कुल भाते नहीं हैं।
मुश्किलें खुद बढ़ाती हैं
अब साहस मेरा ।
कदम ठोकरों के डर से
अब रुक पाते नही हैं ।।
जोर जितना भी चाहे,
लगा ले जमाना,
जमाने से हम घबराते नहीं हैं।
हम तूफानों में पले हैं,
आंधियों से खौफ खाते नहीं हैं।
हम जलाते सदा दिया घर में,
अंधेरों के यहां पर ठिकाने नही हैं ।।