मुलाक़ात इक अजनबी से
मुलाक़ात इक अजनबी से
चलते -चलते जब यूं ही मिल जाता है ख़ास अजनबी कभी कोई ,
समां हसीं लगने लगता है ,नज़रें रहती हर पल उसके ख्यालों के समंदर में खोयी और बस खोयी .
इश्क़ उसका चलता साथ हरदम ,सरपरस्त साया रहता उसका हर पल ,
मुट्ठी से दिल फिसलने लगता बेकाबू होकर ,मिल पाता इसका न कोई भी हल.
अपने पराये का भेद क्यों करना तब, मिल जाए एक अजनबी में हमदम एक जब .
मुश्किलों में दामन थामे जो,मिलता आसानी से कहाँ ऐसा कोई कभी ,
जाना पहचाना अपनों से भी अपना अनूठा ऐसा एक अजनबी .
रेशमी ज़ुल्फ़ों के जादू जिसके मिटा दें उम्र के तकाजे की थकान ,
मिल जाए गर दिलबर ऐसा जो भर दे सब सपनों में उड़ान ,
गोद में जिसके सर रख के धरती लगे मानो कोई स्वर्ग- स्थान .
अजनबी हो ही नहीं सकता वो जो करा दे खुद से खुद की पहचान .
रेत फिसल जाती जैसे मुट्ठी से,वैसे ही ये दिल फिसला चला जाता है ,
मौजूदगी-मात्र से उसकी सब कुछ बदला- बदला नज़र आता है.
बदली के बीच छुपा सूरज भी अब आँख मारता लगता है ,
इश्क़ उस का दुनिया के कोशे कोशे को मनोहारी रंगों में रंग जाता है .
अजनबी वो हो ही नहीं सकता , रोम रोम बस यही दहाड़ लगाता है ,
जो चुपके से शामिल हो कर जीवन में,अंग- अंग में जीवन भर जाता है .