यादों का कहकशाँ
यादों का कहकशाँ
न दोस्त है जिगर में
न महफूज़ है ये दिल मेरा
ज़िंदा हूँ तो कैसे हूँ?
जो परबत पे परिंदा मेरा
क्यूँ लगा अश्क आईने पे
जो कल्ब भी सोचता रहा
नींदें मेरी उलझी थी
जो आँखों को धोता रहा
ये वफ़ा कैसी थी साहिब
जो बुझ गए जलने से पहले
था ऊँचे मंजिलों पे, वो पर
मेरा पैर कुचलने से पहले
क्या मुमकिन है वो सुबह
जो ख्वाब में पकड़ लिया
उसे जालिम करूँ या ख़ुदा
जो दूरियाँ वो तय किया
दो घड़ी कुछ साँसें थीं
उसको ही यूं देखकर
अब लापता हैं ख्वाहिशें
वो रोशनी पहचानकर
जो जाँ छिड़कते इश्क में
वो किस्मतों से दूर हैं
अब क्या है खयाल में
जो कहकशाँ मजबूर हैं।