बारिश पूर्णिमा को भी भाती थी

बारिश पूर्णिमा को भी भाती थी

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जब बारिश पूर्णिमा को भी भाती थी, तब टिन शेड पर पड़ती बारिश की ठंडी फुहारें एक संगीत की तरह लगतीं। पूर्णिमा के शरीर पर पड़ती, हवा के झकोरों के संसर्ग से मादित जल बूंदें, मानों मन्त्र अभिषिक्त होती थीं, जिनके सम्मोहन में पूर्णिमा अपने शिकवे भूल जाती और किशोर की मुस्कुराहट का प्रत्युत्तर मुस्कुराहट से देने का मोह भले ही संवारित कर लेती किन्तु उसकी शारिरिक भाषा किशोर के प्रेममय दृष्टिपात का सम्मान करती नजर आती थी। 

अक्सर जिस शाम बारिश हो रही हो, किशोर हँसिया लिए गाँव में निकल जाता था और कुछ अरवी के पत्ते काट लाया करता था। धुएँ से निजात दिला दी थी उसने, अब खाना केरोसिन से जलने वाले स्टोव पर बना करता था। पत्तों को देखकर पूर्णिमा खिल उठती थी, किन्तु हृदय की प्रसन्नता को मुखमंडल पर नहीं आने देती ।

चावल के आटे में थोड़ी हल्दी मिला कर बेसन तैयार करना उसे बहुत बुरा लगने लगा था। अब तो स्टोव के शोर से भी उसे चिढ़ होने लगी है। टिन शेड पर पड़ रही फुहारें संगीत नहीं शोर करती प्रतीत होती हैं। चिढ़ जाती है वो, जब बारिश की वजह से उत्पन्न हल्की ठंड में घरवालों से नजरें बचाते, अपनी गर्मजोशी दिखाते हुए किशोर उसे बाहों में भरने की चेष्टा करता है, वह धकेल देती है उसको, और अब न सिर्फ चेहरा अपितु सम्पूर्ण शारीरिक भाषा किशोर को दुत्कारती नजर आती है, हालाँकि प्रेम अभी भी है। 

एक दो बार तो किशोर ने कुछ नहीं कहा लेकिन जब इस प्रकार के व्यवहार की आवृत्ति बढ़ती गई तो बारिश की ही एक शाम वो घर से निकल गया। पूर्णिमा को लगा कि अरवी के पत्ते लाने गया होगा। "आने दो खिलाती हूँ इनको पकौड़ी " पूर्णिमा ने आज जबरदस्त बहस की तैयारी मन ही मन कर ली थी। किन्तु रात तक वह वापस नहीं लौटा। बाबूजी खाना खाने बैठे तो कुछ व्यथित से थे, किशोर जाते वक्त उनसे बता कर गया था कि वह शहर जा रहा है, खाना खाते हुए बोले - " तुम्हारी असंतुष्टि देखो क्या - क्या कराती है ? यहाँ का धंधा था तो मैं भी हाथ पाँव चला लेता था, अब बिस्तर पकड़ते देर न लगेगी।" पूर्णिमा के पास जवाब तो तगड़े थे लेकिन किशोर के इस तरह चले जाने पर आश्चर्यचकित थी, दुःखी नहीं।


आज फिर घनघोर घटा छाई हुई है, रुपा ने आकर बताया है कि बाबा जी और पकौड़े माँग रहे हैं। उसने गैस बंद किया तथा खुद पकौड़े और चाय लेकर छत पर बने किचन से नीचे चली आई। ओसारे में बाबूजी को पकौड़े देते हुए उसकी नजर अपने मकान के सामने वाले टिन शेड पर पड़ी, लगा कि उसमें चुहलबाजी कर रहे मुनिया और जवाहिर नहीं अपितु वो खुद और किशोर हैं। एक टीस सी उठी और वो वापस अंदर जाने लगी, भगवान से प्रार्थना करते हुए कि मुनिया को मुनिया ही रहने दें, वो पूर्णिमा न बनने पाए। इधर से बाबूजी की आवाज़ आई - " एक बार फोन करके पूछ ले ! सुना है शहर में बाढ़ के आसार हैं।" शहर का तो पता नहीं लेकिन अपराधबोध और पश्चाताप से ग्रसित हृदय में उमड़ रही भावनाओं की बाढ़ पूर्णिमा की आँखों में साफ देखी जा सकती थी।



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