दूरियाँ

दूरियाँ

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"ठीक है मैं नहीं जाती" कहकर वह चुपचाप रसोई में चली गई। पकवान जो बनाने है- न जाने क्या-क्या बनेंगे, माँ इतना कुछ कैसे बना पाती। "बस सात ही तो बजे है माँ, सब हो जाएगा, चिंता मत करो" - कहकर वह तवे की खुशामद करने लगी। आसमान आज नीला है, पर मानो उसका दामन कुछ घंटों में रंगों की बारिश में सराबोर होने वाला है। नौ बजते-बजते पकवानों की खुशबु ने घर के सारे मर्दों की आँखें खोल दी, सबकी पुरानी कमीज़ आज रंगों के स्पर्श को बेकरार हैं। वहीं उस पिछले कमरे की आलमारी में बंद वह सफेद दुपट्टा आज फिर मचल रहा है रंगों के छुअन को। पर पिछले वर्ष की भांति, खुद के जज्बातों को दबाए, वह आज भी उस दुपट्टे को आलमारी के किसी कोने में आँसूओं की रूमाल बना छिपाए रखती है। "ठीक है मैं नहीं जाती" कहकर वह विधवा रंगों से दूरियां बनाए रखती है।। 


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