"एक अधूरी औरत"

"एक अधूरी औरत"

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दरवाजे की घंटी बजते ही मेरी नज़र घड़ी की तरफ उठ गई। 'कौन हो सकता है?' अपने से ही सवाल करते हुए सारांश दरवाज़े की ओर बढ़ा। सामने कुरियर वाला खड़ा था। कुरियर वाले ने एक लिफाफा उसकी ओर बढ़ाया। ये पत्र था -रीता का। दिल की धड़कने किसी अनहोनी की आशंका मेंं तेज हो गई। खुद को काबू करते हुए पढ़ना शुरू किया।उसमें लिखा था–

'प्रिय मित्र सारांश'!
प्यार,

तुम ये पत्र पढ़कर दुखी मत होना। तुम एक सुलझे हुए इंसान हो। आज के सभय मेंं तुम्हारे जैसा दोस्त मिलना मुश्किल ही नहीं नामुमकिन है। पर मेंरे मित्र ये दुनिया अच्छी नहीं। मैंंने बहुत करीब से देखा है इसका असली चेहरा, जो बहुत ही डरावना है। हम जिस समाज का अंग है वह बहरूपिया है। चेहरे पर चेहरा लगाएं फिरते हैं लोग यहाँ या मैंं अकेले इस के स्वरूप को नहीं बदल सकते। ये इतनी आसान डगर नहीं। जीवन के इन 27 सालों मेंं सिर्फ परेशानी ही देखी है। मैंं किसी से क्या शिकवा करूँ मेंरे तो अपने माता-पिता ने ही मुझे ठुकरा दिया।सबने मुझे दोष दिया और हर पग पर मेरा मज़ाक बनाया। ये कहानी तब शुरू हुई जब मैंं साल भर का था। जन्म हुआ तब मैंं आम लड़को के जैसा ही था। मैंं पाँच बहनों मेंं सबसे छोटा था। मेरी बहने खेल-खेल मेंं मुझे लड़कियों के जैसे तैयार कर देती थीं। मेरा लड़की के जैसे श्रृंगार करके वे सब खुब-खुश होतीं। लेकिन धीरे-धीरे मुझे लड़कियो के जैसे रहना अच्छा लगने लगा। मुझे भी लड़कियो के खेल ही समझ आते थे। बड़ा होने पर हर लड़की बहन जैसी लगने लगी। इसके विपरीत लड़को की ओर आकर्षित होने लगा। हर समय महसूस करता कि मेरा उपहास बन रहा है। सब मुझे छक्का या गे बोलते। पर मैंं तो खुद को एक लड़की ही मानने लगा था।

पापा को जब मालूम हुआ, वे बेहद नाराज़ हुए। लाज़मी भी था। लोग बेटा होने की दुआ माँगते हैं और मैं बेटी बनने की तैयारी कर रहा था। इन सब कशमकश में भी पढ़ाई चालू रखी और अच्छे नम्बर से पूरी भी की। दुनिया बहुत खूबसूरत है पर मैं बदनसीब। पापा ने मुझे ठुकराया साथ में समाज ने धिक्कारा बस एक माँ ही थी जिसने सहारा देने की कोशिश की पर कुछ कर न पाई। मैंं हर बार चीख चीख कर कहना चाहता था 'मैं लड़का नही वरन एक लड़की हूँ'। अपने जीवन के हर उस पन्ने को आग लगाना चाहता था जहाँ मुझे लड़का कहा गया।
चाहता था सबसे दूर जाना। इसलिए नौकरी मिलते ही बंगलौर आ गया। पर इस भेद ने यहाँ भी पीछा नही छोड़ा। यहाँ भी मुझे हिजड़ा बोल कर मज़ाक बनाया।जब भी मुझे कोई लड़का बोलता तो अंदर तक कुछ मर जाता। क्यों मुझे लड़की नही माना किसी ने। मैंं रीता थी, रीता। रितेश तो बहुत पहले ही मर गया था, मेंरे अंदर। मेंरे अंदर जो धड़क रहा था वो तो एक औरत का दिल था।'
दो दिन पहले जब तुमने साथ जीवन व्यतीत करने का प्रस्ताव रखा तो, एक बार को मन किया फौरन हाँ बोल दूँ। पर अंदर की आत्मा ने साथ नहीं दिया और तुमसे थोड़ा वक्त मांगा। तुम बेहद करीब थे मेंरे, पर तुम्हे इस नारकीय जीवन मेंं धकेलना नहीं चाहती थी। ये समाज कभी ऐसे रिश्ते को नहीं स्वीकारेगा।


एक सांस में ये सब पढ़ गया था सारांश। कितना बड़ा वज्रपात हुआ था। फिर भी आगे पढ़ना जारी रखा। 'कहते हैं मर्द को दर्द नहीं होता पर मुझे होता था। जब तक लड़की के वस्त्र नही धारण किए थे, तब तक रोज़ मरती थी। पर अपाहिज बन कर नही जीना चाहती थी। हर समय एक ही चाह- कोई मुझे आंटी, भाभी, दीदी या माँ बोले। मुझे हर समय अपने अंदर की औरत मेंं एक दुर्गा दिखती थी। हर समय एक ही चाह थी कि कोई तो हो अपना जो मुझे संभाले। अधूरी सी चाह होने लगी थी माँ बनने की। कितनी बदनसीब है वो माँएं जो पैदा होने से पहले या बाद मेंं लड़की को मार देती हैं लड़के की चाह में।
भगवान् के न्याय पर भी हंसी आती है मुझे, कहीं तो माँ के सीने में ममता नही दी और मुझे औरत का दिल लगा कर जन्म दिया। हर समय बस ठोकर ही मिली। सारांश तुम्हारा और मेरा रिश्ता बहुत खास है। कुछ रिश्तों के पर नाम नहीं होते। हमारा रिश्ता किसी नाम का मोहताज नहीं। मैंं चाहती हूँ तुम अपने जीवन मेंं आगे बढ़ो। जब अपने-अपने न हुए तो गैर से क्या शिकवा। थक गई हूँ अब। न ही मर्द रूप में खुश थी न ही औरत बन कर। औरत तो बन गई पर पूरी नहीं एक अधूरी औरत। जिसे ये समाज हिजड़ा बोलता है। अब जा रही हूँ मैंं सब से दूर। तुम से दूर, बहुत दूर।अगला जन्म औरत का मिले इसी कामना के साथ'

खुश रहो हमेशा।
रीता।

पत्र समाप्त हो गया था पर आँसू अभी भी बह रहे थे। सारांश के मन में कई सवाल थे पर शायद उन के जवाब नहीं थे। उसने एक अच्छा दोस्त और इक अच्छा इंसान खो दिया था। आज रीता के लिए उसके मन मेंं इज्ज़त और भी बढ़ गई थी।


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