Mayank Saxena Honey

Tragedy

4.5  

Mayank Saxena Honey

Tragedy

गुस्ताख़ी माफ़

गुस्ताख़ी माफ़

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वर्क फ्रॉम होम अर्थात घर से कार्य करवाने का कॉन्सेप्ट लॉकडाउन के दरमियान आया। पर दुनिया यह भूल गई कि भारत में वर्क फ्रॉम होम के नाम पर भी जो एक कर्मचारी को मिलना था, वह था शोषण। अजी जनाब जिस देश में निजी क्षेत्र का नियोक्ता व्यक्तिगत तौर पर कार्यालय में उपस्थित अपने कर्मचारी द्वारा किये गए कामों पर भी उसके हक़ के पैसे पर नीयत बिगाड़ लेता है, वो, और वर्क फ्रॉम होम। निजी क्षेत्र में आज भी कोई विशेष बदलाव नहीं है। मदर इंडिया वाले युग से डिजिटल इंडिया वाले युग तक सब चीज़ों में बदलाव आया है। एक बदलाव जो नहीं आया है, वो है, निजी क्षेत्र के नियोक्ता की मानसिकता में। आप निजी क्षेत्र में कर्मचारी बनिए, तनख्वाह आपको पूरी मिले या न मिले, गाली भरपूर मिलेगी, और तो और अतिरिक्त शोषण भी आपका चरम पर किया जाएगा। आप कर्मचारी हैं, आपको उलाहनायें पूरी मिलेंगी, "काम नहीं करते। एक काम तुमपे नहीं होता", और आपका नियोक्ता आपको नौकरी से बाहर भी नहीं करेगा। अजी जनाब, भला सोने का अंडा देने वाली मुर्गी का गला घोंठ कर, अपने व्यवसाय का गला कैसे घोंठ दे एक नियोक्ता।

 

सामान्य दिनों में, 10 घण्टे का निजी कर्मचारी घर से 4 घण्टे और अपने नियोक्ता को समर्पित करता है, यह सोच कर कि शायद इस भेंट से मेरे मालिक की आत्मा तृप्त हो जायेगी। यह भूलकर कि यदि कोई मुफ़्त में भी निजी कर्मचारी बन जाए तब भी अपने नियोक्ता की आत्मा को तृप्त करना असंभव है। फिर भी विश्व कर रहा है वर्क फ्रॉम होम, निजी कर्मचारी भी तैयार हो गया और 10+4 घण्टे और 25 दिन का कर्मचारी अब 17 घण्टे और 30 दिन का कर्मचारी बन गया। सुबह 7 से रात 12, जब मन आया, नियोक्ता ने मुँह उठाया, और लगा दिया अपने कर्मचारी को फ़ोन और भारत का एक निजी कर्मचारी समझ बैठा यही है वर्क फ्रॉम होम।

 

लेकिन अभी भी एक विश्वास उसके मन के किसी कोने में था कि शायद 17 घण्टे के इस कोल्हू के बैल को, नियोक्ता मेहनताना तो देगा। और यूँ बेवज़ह की वजह लेकर किस्मत का मारा निजी कर्मचारी पत्थर से एहसासों के भ्रम में पड़ जाता है।

मार्च अंतिम 10 दिन, अप्रैल 30 दिन और मई 31 दिन आपदा की इस परिस्तिथि में वर्क फ्रॉम होम करवाने वाले नियोक्ता की अकस्मात् ही आत्मा अनलॉक 1.0 के होते ही मर जाती है। कहीं नियोक्ता तनख़्वाह ही नहीं दे रहा है, कहीं मासिकी का एक तिहाई और कहीं आधा और कहीं कर्मचारी ही निकाल के बाहर कर दिया। कुछ 1 या 2 प्रतिशत अच्छे और बड़े नियोक्ताओं ने अपने कर्मचारी को पूरी तनख़्वाह भी दी।

 

मतलब निजी क्षेत्र में भारतीय परिप्रेक्ष्य में वर्क फ्रॉम होम अपने कर्मचारी का और अच्छे ढंग से खून चूसने का माध्यम बन गया। और इस तरह राष्ट्रीय आपदा या महामारी के वक़्त में कुछ उच्चवर्गीय भारतीयों ने अपने मध्यमवर्गीय और निम्नवर्गीय भाईयों-बहनों के गर्दन पर अपना जूता रखकर वर्क फ्रॉम होम की नई परिभाषा विख्यात की।

 

सच में विपदा की परिस्तिथि में हम भारतीय दूसरों की गर्दन पर पैर रखकर अपना खजाना भरना बहुत अच्छे से जानते हैं। हमें क्या फ़र्क़ किसी का घर चले या न चले। किसी के बीवी बच्चे भूखे मर जाए। हमें तो बस मतलब है कि हमारी तिज़ोरी भर जाए फिर चाहें उस तिज़ोरी के नीचे कितने ही कर्मचारियों की लाशें क्यों न दफ़न हो जाए। दो महीने वर्क फ्रॉम होम करवा कर निजी क्षेत्र के नियोक्ता ने मेहनताना देने से गुरेज़ कर लिया और मन में सोच लिया इस बार तो दो महीने मुफ्त में ही काम ले लिया। निजी नियोक्ता ऊपर वाले से प्रार्थना कर रहा है ऐसे ही लॉक डाउन और लगते रहें और निजी कर्मचारी ऊपर वाले से दुआ कर रहा है एक लॉक डाउन ऊपर वाला उसकी साँसों पर ही लगा दे।

 

मुझे पता है इतना सब पढ़ कर भी भारतीयों का दिल नहीं पसीजेगा, क्योंकि हम भारतीय दिल भी मतलब के समय ही प्रयोग में लाते हैं और जब प्रेमचंद जैसे महान व्यक्तित्व वाले लेखक भारतीयों की अंतरात्मा नहीं झकझोर सके तो मैं तो एक तुच्छ सा लेखक हूँ। 

वर्क फ्रॉम होम का मतलब कोई पूछे तो निजी कर्मचारी बस यही कह पाएंगे, "डिजिटल युग में नियोक्ता द्वारा हमारे शोषण का डिजिटल तरीका"

 

एक लेखक की कलम से...



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