हौसले की उड़ान
हौसले की उड़ान
कितने खुश थे शिवनाथ जी अपने परिवार के साथ। छोटा सा परिवार था उनका- पति, पत्नी और एक प्यारी सी बेटी। स्टील की फैक्ट्री थी। शहर के प्रतिष्ठित लोगों में उनका नाम लिया जाता था।
आर्थिक तौर पर धनी होने के साथ-साथ व्यक्तित्व के भी धनी थे, ज़मीनी रिश्तों से पूरी तरह से जुड़े हुए थे। चाहे अब वह संयुक्त परिवार में नहीं रहते थे मगर फिर भी अपने अभी भी जुड़ाव महसूस करते थे। चाचा-चाची, भाई-बहन सब अलग रहने लगे थे मग़र नियमित रूप से कभी फोन पर बात करते या फिर कभी आना जाना भी हो जाता था। उनका ये व्यवहार दिखावा न होकर के हृदय के अनोखे एहसास से परिचित करवाता था। पैसों की चमक उनके व्यक्तित्व को बिगाड़ न पाई थी।
बहुत अच्छा चल रहा था सब। शिवनाथ जी फैक्ट्री से घर वापिस आ रहे थे। रास्ते में उनकी कार का बुरी तरह से ऐक्सीडैंट हो गया। आस पास के लोंगो ने शिवनाथ जी और उनके ड्राईवर को अस्पताल पहुँचाया। ड्राईवर का तो अस्पताल पहुँचते ही देहान्त हो गया। वे स्वयं बच तो गये, मगर ज़िन्दा होते हुए भी ज़िन्दगी में कुछ रह नहीं गया था। अब वे चल फिर नहीं सकते थे और एक अपाहिज की ज़िन्दगी जीने को मजबूर हो गये।
आधुनिक तकनीकों से उनका इलाज तो हो गया, परन्तु फिर भी अब वे आजीवन घर की गुज़र बसर करने में सक्षम नहीं थे।
कुछ समय पश्चात घर वापिस तो आ गये मग़र अब घर की चिन्ताओं ने उनको हर पल घेरे रखा। उनका परिवार अचानक अर्श से फर्श पर आ गया था। उधर उनकी पत्नी भी परेशान रहने लगी।
एक वर्ष बीत गया।
सब जुटाया धन-संपत्ति और फैकट्री भी बिक गई। इस मुश्किल समय में कोई मित्र-सम्बन्धी पास नहीं आया और धीरे धीरे सब साथ छोड़ते चले गये। एक एक दिन काटना मुश्किल हो गया।
सुनीता, शिवनाथ जी की पत्नी, केवल पाँचवीं पास थी तो कोई नौकरी भी नहीं कर सकती थीं। मगर वह एक एक कुशल गृहिणी थीं। उन्होंने सिलाई कढ़ाई का काम सीखा हुआ था तो उसी काम को कर के घर का गुज़ारा चलाने की सोची। घर के काम के साथ सिलाई कढ़ाई का काम भी करना शुरू कर दिया। धीरे धीरे घर की हालत सुधरने लगी। बेटी अभी छोटी थी तो अभी उसकी पढ़ाई-लिखाई के खर्च का इतना ज़ोर नहीं था, मग़र उसे बेटी के बड़े होने पर पढ़ाई-लिखाई पर आने वाले खर्च की फिक्र थी। इसलिए साथ ही आस पड़ोस की लड़कियों को सिलाई कढ़ाई की शिक्षा देनी भी शुरु कर दी। जैसे जैसे आमदनी बढ़ने लगी तो उसकी अपेक्षाएं और भी बढ़ने लगी। अब वे अपनी बेटी को अपने पैरों पर खड़ा होने का सपना देखने लगी। वे नहीं चाहती थीं कि जो उन्होंने भुगती, भगवान न करे, उनकी बेटी भी भुगते।
शिवनाथ जी सुनीता को सारा दिन व्यस्त और चिंतित देखते तो बहुत दुखी होते। आखिर बिस्तर पर पड़े पड़े कब तक दिन काटते। धीरे धीरे मानसिक तौर पर बिमार रहने लग गये।
डॉक्टर की लिखी दवाइयों में नींद की गोली भी शामिल थी।
एक दिन रात को उन्होंने १५-२० नींद की गोलियाँ खा लीं और नींद में ही उनका स्वर्गवास हो गया।
सुबह जब सुनीता जब नाश्ता लेकर उनके पास आई तो स्तब्ध रह गई। उसे समझ नहीं आ रहा था कि क्या करे। एक परेशानी से तो निकली ही नहीं थी कि दूसरी परेशानी सामने थी। दुखों का पहाड़ ही टूट पड़ा था उस पर। हिम्मत हार जाती सुनीता मगर अचानक उसे अपनी बेटी का ध्यान आया जिसकी वजह से वे शायद अपने आप को मज़बूरी में ज़िन्दा रखे हुए थी। वे बस अपनी बेटी के लिए ही जी रही थी।
अब उनके जीवन का एक मात्र लक्ष्य रह गया था, अपनी बेटी को उसके पैरों पर खड़ा करना। वे ज़्यादा से ज़्यादा काम करने लगी। दिन रात एक कर दिया। बेटी धीरे-धीरे बड़ी हो रही थी।
आज शिल्पा, सुनीता की बेटी का दसवीं का परिणाम घोषित हुआ। वह पूरे शहर में प्रथम आई। अब उसको छात्रवृति भी मिल गई। इससे सुनीता को भी हौसला मिला। बेटी भी माँ का साथ देने में कोई कसर नही छोड़ रही थी। इससे सुनीता को हमेशा हिम्मत मिली।
शिल्पा ने बी.ए. की परीक्षा पास कर ली और उसके बाद एम.बी.ए.भी कर लिया। और उसके बाद किसी अच्छी कम्पनी में नौकरी की तलाश में जुट गई। वो नहीं चाहती थी कि अब उसकी माँ हमेशा सारा दिन काम ही करती रहे।
सुनीता की आँखें भी खराब हो गई थी। अब वे इतना काम भी नही कर पाती थी, दिखना बहुत कम हो गया।
कुछ ही दिनों में शिल्पा को अच्छी जगह नौकरी भी मिल गई।
चाहे उन्होंने अपने पति को गंवा दिया जिनकी कमी हमेशा उनको महसूस होती थी, मग़र फिर भी वे बहुत खुश थी। उनके हौसले की उड़ान आज उनको अपनी मंज़िल तक ले आई थी।