Anil Anup

Tragedy Inspirational

4.2  

Anil Anup

Tragedy Inspirational

काम ने जीते जी अमर बना दिया

काम ने जीते जी अमर बना दिया

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कृष्णा न्यूड मॉडल हैं. बिना कपड़ों के मॉडलिंग करती हैं. या फिर महीने के चंद रोज़ निचले हिस्से में बित्ताभर कपड़े के साथ. दिल्ली यूनिवर्सिटी के लिए पिछले 18 सालों से काम कर रही हैं. जिस समाज में दूध पिलाती मां भी सेक्स ऑब्जेक्ट होती है, वहां इस पेशे के लिए मजबूती नहीं, मजबूरी चाहिए होती है. पढ़ें इस न्यूड मॉडल की दास्तां...

बीच मांग की चोटी और माथे पर चमकती सिंदूरी बिंदी वाली ये औरत तेज-तेज कदमों से चलती हुई बस स्टॉप पहुंचती है. सरिता विहार के अपने घर से दिल्ली यूनिवर्सिटी के कला विभाग के पूरे रास्ते खिड़की से बाहर देखती रहती है. पलकें नहीं के बराबर झपकती हैं. सवालों के छोटे-छोटे जवाब देती इस औरत को देखकर उसके पेशे का सहज ही अंदाजा नहीं लग सकता.


दरम्यानी उम्र की कृष्णा जब पोट्रेट रूम में बैठती हैं तो उनमें और किसी मूर्ति में कोई खास अंतर नहीं होता. धड़कनों के उठने-गिरने से ही फर्क किया जा सकता है. या फिर कभी-कभार पलकों के झपकने से. कमरे में चारों ओर रंगों की गंध होती है और तेज रौशनी ताकि शरीर की बारीक से बारीक रेखा या उठ-गिर भी नजरों से चूकने न पाए.

उन्हें वो दिन बखूबी याद है, जब पहली बार कई जोड़ा अनजान मर्दों के सामने कपड़े उतारे. बताती हैं, 6 घंटे में 3 बार छुट्टी मिलती और मैं खूब रोती. पलकें झपकाना मना होता है, जितना हो सके. मैं धीरे-धीरे पुतलियां घुमाते हुए हर चेहरे को गौर से देखती, कहीं कोई मुझे गंदी नजरों से तो नहीं देख रहा.फिर कॉलेज के प्रोफेसरों और बच्चों ने इतना प्यार दिया कि मैं खुल गई.

पहले कोठियों में साफ-सफाई का काम करती थी. ऐसे ही एक दिन पता चला कि कॉलेज में पेंटिंग के लिए मॉडल चाहिए होती हैं. मैं कसकर लंबी चोटी गूंथा करती, माथे पर बड़ी बिंदी, पाड़-भर सिंदूर और ढेर-भरके चूड़ियां. कभी चुस्त कपड़े नहीं पहने. बताने वाली ने कहा कि वो हम-तुम जैसी ही होती हैं.

तब जवान थी, लगा कर लूंगी. शुरू में कपड़ों के साथ मॉडलिंग करती. साड़ी या सलवार-कुरती पहनकर. आंचल या दुपट्टा जरा इधर से उधर नहीं होने देती. तब वो भी आसान नहीं लगता था. घंटों बिना हिले-डुले बैठे रहना होता. हाथ-पैर सुन्न पड़ जाते. अलग-अलग तरह से बैठाया जाता, कई बार नस खिंच जाती. अक्सर मुझसे बाम की महक आती.


सुबह 11 से शाम 5 बजे तक के सेशन में तीन बार छुट्टी मिलती है. उसी में हाथ-पैर सीधे कर लो, खाना खा लो या फिर किस्मत को रो लो. सबसे पहले कपड़े सकेलती, पहनती और हाथ-पैर सीधे करती हूं. इसके बाद बारी-बारी से लड़के-लड़कियों के पास जाकर देखती हूं. मेरे शरीर को मुझसे बेहतर भला कौन जानेगा. तो अगर मुझे लगता है कि कुछ सही नहीं बना है तो टोक भी देती हूं. वो लोग भी हंसते हैं. दोबारा गौर से देखकर फिर स्केच करते हैं. पुतला भी बनाते हैं.

ये सफर आसान नहीं था.

उत्तर प्रदेश के बदायूं की कृष्णा की 14 साल की उम्र में शादी हो गई. पति की दूसरी शादी थी. पहली से 3 बच्चे थे. छोटी सी कृष्णा को अम्मा पुकारते. बाद में खुद के 2 बच्चे हुए. बातचीत करते हुए जब भी बच्चों का जिक्र आता, कृष्णा उन्हें 5 ही गिनतीं. कहती हैं, बच्चों को ब्रेड-जैम देने का ख्याल सब मांएं नहीं कर पातीं, मैं उन्हें बस भरा-पेट सोते देखने के लिए काम करती रही और अब शादी-ब्याह के लिए.

जब पूरे कपड़ों में काम करती थी तो पैसे कम मिलते थे. एक दिन के 100 रुपए. न्यूड में 220रुपए मिलते थे, इसलिए मैं ये भी करने लगी. अब दिन भर के 500 रुपए मिलते हैं. जब पहली कमाई लेकर घर आई तो पति खुश होने की बजाए सुलग उठा. चीखने लगा. वो रोज़ 12 घंटे, पूरे महीने काम के बाद 1500 कमाता. मैं 2200 लेकर आई थी.

उसने शक करना शुरू कर दिया. मेरा जाना बंद हो गया. तभी कॉलेज से एक सर आए. अपनी गाड़ी में बिठाकर मेरे आदमी को कॉलेज ले गए. सब दिखाया, तब जाकर उसे यकीन हुआ. एक रोज काम से लौटते हुए वो मेरे लिए छाता ले आया. कहा, धूप में जाती है, ये साथ रख, कृष्णा हंसते हुए याद करती हैं.

लेकिन पास-पड़ोस को अब भी नहीं पता. घर के पहले कमरे में बच्चों की ही बनाई पूरे कपड़ों वाली दो पेंटिंग्स लगा रखी हैं. उन्हीं को दिखाकर बताती हैं कि ये मेरा काम है. बिरादरी निकाल देगी तो कहां जाएंगे!

लगभग 2 दशकों से हर महीने कभी पेंटिंग तो कभी स्कल्पचर के लिए कॉलेज जा रही कृष्णा ने इस सफर में तमाम उतार-चढ़ाव देखे. झुर्रियों की पहली आमद से लेकर बाल रंगवाने और भौंहे बनवाने तक. पहले लोग दीदी बोला करते थे. बाद में कृष्णा जी कहने लगे और अब आंटी कहते हैं. उम्र अब शरीर ही नहीं, मेरे लिए संबोधन में भी झलकती है.


पेशे में पैसे तो हैं लेकिन कई बार बहुत तकलीफ होती है. दिसंबर-जनवरी के महीने में काम का बुलावा आता है तो मन को तैयार करना पड़ता है. आपके सामने आधी उमर के बच्चे मोटे-मोटे कपड़े पहने चाय की चुस्कियां लेते हुए तस्वीर बनाते हैं और आप ठिठुरन रोकने के जतन भी नहीं कर पाते. रूम में वैसे हीटर चलता रहता है लेकिन फिर भी कंपकंपी आती है. महीना चलता है तब भी परेशानी होती है. फोन आ गया है तो जाना ही होगा. तब बड़ा-सा कच्छा पहनकर बैठती हूं.

इतने साल हो गए. क्लास में जाते ही पहले कपड़े अलग करती हूं, फिर वो जैसा बैठने को बोलें, बैठ जाती हूं. नए बच्चे आते हैं तो झिझकती हूं. आंखें बंद करके बैठी रहती हूं. कपड़े पहन नहीं सकती तो आंखों से ही खुद को ढांप लेती हूं. बच्चे कहते हैं,आंखें खोलो आंटी, तब आंखें खोल लेती हूं. फिर आंखें बंद होती हैं, फिर खुलती हैं. शरम खोलने का यही एक तरीका मेरे पास है. कभी-कभी खुजाल मचती है या कोई नस-वस पकड़ लेती है तो हाथ रुक नहीं पाते. नए बच्चे गुस्सा करते हैं. आंटी, हिलो मत. कई बार रोना आ जाता है. सोचती हूं, अब ये काम और नहीं कर सकूंगी लेकिन अभी दो बच्चों की शादी बाकी है. फिर फोन आता है तो मना नहीं कर पाती. एक बार एक लड़का कुछ बोलकर हंस पड़ा था तो प्रोफेसर ने उसे पांच दिन के लिए क्लास में घुसने नहीं दिया था. फिर मन वापस जुड़ जाता है.

तमाम तकलीफों के बावजूद कृष्णा का काम से प्यार साफ झलकता है. बड़े-बड़े लोग कहानी-कविता, गाने, फिल्मों में मरने के बाद भी जिंदा रहते हैं. मैं पढ़ी-लिखी नहीं, पैसेवाली नहीं लेकिन फिर भी लोग मुझे याद रखेंगे.

अब तक मेरी लाखों तस्वीरें, मूर्तियां बन चुकी हैं, दुनिया के पता नहीं किस-किस हिस्से में, किन घरों की दीवारों-कोनों में ये होंगी. काम ने मुझे जीते-जी अमर बना दिया.


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