Riya Pandey

Tragedy

4.7  

Riya Pandey

Tragedy

काफिरों की घर-वापसी

काफिरों की घर-वापसी

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मैं छोटे-छोटे पौधों को रोपकर बनाए गए इस सुनसान बगीचे में नाचती धूप के बीच रखी आरामगाह चेयर पर बैठा था। मैं अकेला हूं यह कहना सरासर गलत है। सैकड़ों सूक्ष्म और दृश्य पेड़ पौधे एवं जीवो की सांसो की फड़फड़ाहट और यादों की तल्ख कड़वाहट में कराहती कई चीख़ों में दबी मेरी सांसे भी चल रही है। वर्षों से मेरी इन चलती सांसो से बहसबाजी मची थी। आज भी हल्की गुनगुनी धूप खिल कर कलियों को फूलों में रूपांतरित होने के लिए प्रेरित कर रही थी। इन धूपों में फैला उजियारा और अंधेरा अब मुझे नजर नहीं आता।

मेरे लिए तो यह घर यह धूप और यह शरीर सब जेल की सलाखों सरीखे ही थे। कई जिंदगियों का बोझ लिए मैं आज भी 30 सालों से झुका हुआ किसी फरमान रूपी लाठी का इंतजार कर रहा था। कुछ दर्द, कुछ घाव हमारी जिंदगी का महक हिस्सा ना बन कर जिंदगी बन जाते हैं। हम ताउम्र इस दर्द से सनी जिंदगी को जीने की सजा भुगतते रहते हैं।

मेरा मन एक बार फिर अतीत की कड़वाहट से खिन्न था कि तभी चहकती चिर परिचित आवाज गूंजी -

"पापा... आपने आज का अखबार देखा क्या..?? अरे देखिए तो सही... हमारी घर वापसी की राह अब आसान हो गई है। सरकार ने कश्मीरी पंडितों के पुनर्वास योजना को मंजूरी दे दी है और अच्छा खासा पैकेज भी..!! हम हमारी पहचान वापस मुकम्मल कर पाएंगे..!!"

मृगांक ने चहकती आवाज को बुलंद करते हुए कहा। खैर... उसकी आवाज में यह खनखनाहट वाजिब भी थी। घर वापसी का किसे इंतजार नहीं होता..?? वह मेज पर अखबार को पटक कर बैठते हुए मेरे जवाब का इंतजार करने लगा। पर मेरा भावहीन चेहरा देखकर उसे कुछ अटपटा भी लगा।

"सरकार ने यह अविश्वसनीय सराहनीय कार्य किया है। चलो... अब चैन से घर में बैठा अखबार तो पढ़ सकूंगा..!! अखबारों में फिर से कोई फ़रमान तो जारी न होगा..!!"

मैंने एक फीकी सी मुस्कुराहट बिखेर कर कहा। मृगांक तो बहुत ही खुश नजर आ रहा था। शायद वह मेरे लिए भी खुश था। 30 साल से उसने अपने जिस पिता को खो दिया था शायद यह घर वापसी उसे उसके पिता से मिला सकती थी। आज वर्षों की तपस्या सफल हुई। वह पूरे घर में शोर मचाते हुए सबको चीख चीख कर बता रहा था।

30 वर्षों में कश्मीरी पंडितों पर सिर्फ मुद्दे को भुनाने की कोशिश और राजनीति ही की गई थी। खैर सरकार ने सीने पर उभरे गहरे जख्म पर दो बूंद ही सही पर मरहम लगाने की कोशिश की थी। 3 दशक बीत चुके थे इस फैसले की बाट जोहते जोहते..!! अब इन बूढ़ी आँखों में कोई आशा या निराशा नहीं थी। अपने ही मुल्क, सरजमी, घर से बेरहमी से खदेड़े जाने का दर्द अभी भी हृदय को सालता रहता है।

मैं फिर इन भूली बिसरी यादों की तरफ रुख कर ही रहा था कि तभी मेरा 8 साल का पोता कपोल भागते हुए मुझसे लिपट गया। वह मेरी तरफ देखते हुए बोला -

"दादू.... यह पापा इतने खुश क्यों है..?? हमारा घर तो यही है ना... फिर हम कहां जाएंगे..??"

उसने मासूमियत से पूछा पर मेरी नम आंखों में भी यह सवाल चुभ गया। आज फिर इस सवाल ने मुझे 30 साल पहले अपने घर की दहलीज पर लाकर खड़ा कर दिया था। 30 साल पहले भी तो मेरे पास यही सवाल था।

"हमारा घर तो यही है फिर हम कहां जाएंगे..??"

ना कोई राजतंत्र न ही लोकतंत्र अब मुझे किसी में ना भरोसा था ना ही दिलचस्पी..!! मैं मुस्कुराया -

"बेटा... कुछ अपना नहीं होता... ना घर, ना देश, न लोग..!! सिर्फ एक जमीन का टुकड़ा अपना होता है। वही पैदा होकर वही दफन हो जाना है। वही माटी अपनी होती है..!! उसी की गोद में सुकून आता है।"

वह बच्चा भला इसे क्या समझता..?? अपना तो हमने खोया था। उस माटी से हम दूर हुए थे। अंदर से उसकी मां की आवाज आई और वह भागता हुआ अंदर चला गया।

अखबारों को मैंने पढ़ना छोड़ दिया था। क्या पढ़ता..?? वही राजनीति, वही अत्याचार, वही नरसंहार आज भी छोटे पैमाने पर हो रहा था। कहीं ना कहीं आज भी एक बेकाबू हिंसा सुलगी हुई थी। मैंने आंखें मूंदी और 30 साल पीछे की गर्द जिंदगी को खंगालने लगा।

मैं. यानी चिरंजीव खेर, अपनी गृहस्थी में रमा, मस्त मौला एक कश्मीरी पंडित हूं। एक भरा पूरा परिवार मेरी मां, पिताजी, मैं मेरी पत्नी, मेरी बहन और हमारा नन्हा मृगांक बड़ी खुशहाल सी जिंदगी थी हमारी। कश्मीर के हालात कुछ ठीक नहीं चल रहे थे। हर रोज अखबारों में कश्मीरी पंडितों के लिए पलायन का पैगाम और कत्लेआम की खबरें ही छपती। कई घर फूंके जाते, कई फर्द जलती हिंसा के सुपुर्द जलकर राख हो जाते। ना मां सुरक्षित थी, ना आवाम ना ही मर्द..!!

कश्मीरी पंडितों को घर छोड़ने की हिदायतें सुबह से ही मस्जिदों पर लाउडस्पीकर पर चिल्लाती रहती। हालांकि पलायन जारी था। डर था पर सवाल बड़ा था कि हम कहां जाएंगे..?? सब ने हमें कश्मीरी नहीं, कश्मीरी पंडित समझा..!!

सुबह क्या रात..?? सिर्फ दिल दहलाने वाली चीखें और ममता भरी दहाड़े ही सुनाई पड़ती। 4 जनवरी 1990 को एक उर्दू अखबार आफताब में हिजबुल मुजाहिद्दीन ने छपवाया कि सारे पंडित कश्मीर की घाटी छोड़ दे। मस्जिदों पर, गलियों में, नुक्कड़ों पर लाउडस्पीकर से यह नारे गूंजने लगे। पर सवाल अभी भी वहीं था कि हम कहां जाएंगे..??

हमारे आसपास सब ने हमें दिलासा दिया कि नहीं भाई कहां जाओगे तुम..?? रहना तो यही है और शायद दिल से भी हम यहां से जाने को तैयार भी नहीं थे। सरकार ने खुद इस खूनी खेल को मंजूरी दे दी थी। सबकी चीख़ों में हमारी भी चीखे़ं मौजूद थी। पर सुनता कौन..?? हम सब मौन पड़ गए और कहते भी क्या...?? किससे..??

चारों तरफ अट्टाहास करती ये हिंसा और शर्मसार होती मानवता ही दिखाई पड़ रही थी। पहली बार नरक की कल्पना का सजीव चित्रण हमारी आंखों के सामने चल रहा था। जहां जल हो रहे थे जिंदा गूंगे इंसान... गूंगे घर और मौन पड़ गई हमारी चीखें..!! सब कुछ राख हो रहा था। बस यही नारे गूंज रहे थे।

ऐ जालिमों, ऐ काफिरों, काश्मीर हमारा है।

रालिव, गालिब या चालिव।

19 जनवरी, 1990

आज फिर लाउडस्पीकर पर चेतावनियां हमें आगाह कर रही थी। हमारे दिल धक-धक कर रहे थे। धड़कनें तेज बढ़ी हुई थी पर अपनी फिक्र, अपनी चिंता किस के सामने जाहिर करते..?? हर कोई डरा हुआ था। मौन होकर सब सुन ही रहे थे कि हमारे घर पर तेज आवाजों और नारों की कर्कश गूंज पड़ी।

एक पल के लिए तो धड़कन थम सी गई। अरे यह उपद्रवी हमारे घर पर हमला कर चुके थे।

असि गछि पाकिस्तान, बटव रोअस तो बटनेव सान

अगर कश्मीर में रहना होगा, अल्लाहु अकबर कहना होगा।

इन मजहबी नारों से हमारे कान के पर्दे फड़फड़ाने लगे। सब दरवाजों को जोर-जोर से पीट रहे थे जैसे वे सब हमारे सिर पर लाठियां बरसा रहे हो। हम सब सकपकाई नजरों से एक दूसरे को देख रहे थे। मेरा दिल धक्क रह गया। मैंने 3 साल के सोते मृगांक को अपनी बांहों में थामा और अपनी मां को पकड़ते हुए कहा -

"आप... सब पीछे वाले दरवाजे से बाहर निकलिए। मैं... मैं भी निकलता हूं..!!

मां ने सोते हुए मृगांक को बांहों में थामते हुए कहा - बेटा... तुम भी चलो और....चि... चित्रा सरोजा बाहर अली भाई के यहां खाना देने गई थी, उनकी तबीयत नहीं ठीक ना..!!

यह सुनते ही मैं कांप उठा। चित्रा मेरी बहन और स...सरोजा मेरी पत्नी। आज पहली बार भरोसा डगमगा रहा था। "अली भाई" यही शब्द कानों में गूंज रहे थे। हालांकि मैंने जल्दी से पिताजी और मां के साथ मृगांक को घर से बाहर भेज दिया।

मैं कैसे जा सकता था..?? अली चाचा मेरे पिताजी के दोस्त थे, जिगरी दोस्त..!! पर इस मजहबी आग ने घर, परिवार, दोस्त सब छीन लिया था। जाने क्यों कलेजा कांप रहा था..!! मैं दरवाजे की तरफ बढ़ा ही था कि तभी आवाजें रुक गई। किसी की आवाज गूंजी -

"वो रहीं इनकी औरतें..!!"

मेरे बदन में झुरझुरी सी हो रही थी। सामने चित्रा और सरोजा खड़ी थी। वो भीड़ अब भूखे दरिंदों की तरह उन दोनों पर लपकी। मैंने झट से दरवाजा खोला तो सामने वह दो जोड़ी असहाय भीख मांगती औरतों की आंखें नजर आ रही थी।

सहमी आंखों से देख रही थी कि शायद कहीं से मानवता कूदकर उन्हें बचा ले पर अफसोस मानवता ने तो पहले ही दम तोड़ दिया था। वह दोनों भाग कर अली चाचा के घर में दुबक गई। मैं भी भागकर चाचा के घर के सामने खड़ा था। उन्होंने मुझे पकड़ लिया था। अली चाचा के घर में तोड़फोड़ कर रहे थे।

आंसुओं से डूबी, हाथ जोड़े असहाय अबलाएं विनती कर रही थी पर देंगे किसी की करुण रुदन पुकार कहां सुनते हैं..?? उनमें से एक बोला -

"इसने जुर्रत की है, इसकी सजा इसे मिलनी चाहिए।"

वे सब चित्रा और सरोजा पर झपटते इससे पहले ही चाचा कूद पड़े।

-" वो सब कश्मीर छोड़कर चले जाएंगे पर इन बच्चियों को जाने दो..!!"

अली चाचा हाथ जोड़े खड़े थे। मेरी आंखों के सामने जैसे एक दीपक टिमटिमाने लगा था। एहसास हो रहा था कि उन्होंने उस खीर की मिठास को अपने दिल में उतार लिया था। आज अली चाचा ने उस मजहबी आग को मेरे अंदर जलने से पहले ही बुझा दिया था। मेरी आंखें उनपर ठहरी थी जो इस हिंसा को रोकने में अपने हाथ जोड़कर खड़े थे।

-" यह भी गद्दार निकला..!! ये यहां से तो जाएगा पर यह औरतें नहीं... ताकि इसमें डर बना रहे..!!"

उनमें से एक ने मेरे और अली चाचा पर नजर घुमाते हुए कहा। एक झटके में ही अली चाचा पर चाकू से वार कर दिया। मैं दर्द से बिलबिलाते हुए चीख पड़ा। अली चाचा हाथ जोड़े ही जमीन पर ढेर हो चुके थे। मैं भी चीख रहा था, चिल्ला रहा था पर सुनता कौन..?? खुद को आजाद कराने के लिए गुस्सा कर रहा था, मिन्नतें कर रहा था, रो गिड़गिड़ा रहा था पर कौन सुनता..?? सामने तो सब वहशी दरिंदे खड़े थे।

चित्रा और सरोजा की चीजों से पूरा घर पर थर्रा रहा था। वे बार-बार मुझसे यहां से चले जाने की गुहार कर रही थी। इस मजहबी आग ने हीं सब को रौंदा डाला था। मैं घुटनों के बल अली चाचा की याचना भरी आंखों में देख रहा था।

वे दंगाई अब किसी और घर को जला रहे थे। किसी और मां बहन की अस्मत लूट रहे थे। किसी और आंखों की याचना को नजरंदाज कर रहे थे। तभी कमरे से एक कराहने की आवाज आई। मेरे जिस्म का सारा खून निचुड़ चुका था। होश नहीं था कि मैं कहां हूं और किस लिए हूं..??

मैं गिरते पड़ते कदमों से दरवाजे पर पहुंचा तो स...सरोजा अभी सांसे ले रही थी। मैं नि:शब्द खड़ा था। ना आगे बढ़ने की हिम्मत थी ना ही रोने के लिए आंसू..!! मेरी सरोजा लहूलुहान फर्श पर पड़ी थी। उसकी रूह और जिस्म पर लगे यह भद्दे जख्म उसे यहां से अब दूर ले जा चुके थे। बहुत दूर..!! उसकी आंखें अटकी हुई शून्य को निहार रही थी। कई सरोजा ऐसे ही जमीन पर पड़ी अनंत को घूर रही थी। कई चिरंजीव ऐसे ही दरवाजे की चौखट पर खड़े लहूलुहान सरोजा को भावहीन नजरों से देख रहे थे। कई अली मिठास को बचाते हुए मर चुके थे।

मैं वही दरवाजे पर धम्म से बैठ गया। ना सरोजा को छूने की हिम्मत बची थी ना ही चित्रा को देखने का कलेजा था। कहीं मेरी फूल सी सरोजा का दर्द और न बढ़ जाए, मैंने अपने कांपते हाथों को उसे छूने से भी रोक दिया।

कुछ देर बाद मैं घर से बाहर निकला तो मेरा पूरा घर जल रहा था। मैं चीखता, चिल्लाता घुटनों के बल बैठ गया। मेरा पूरा चेहरा आंसुओं से भीगा हुआ था। चारों तरफ यह चीखें तेज हो रही थी। कई फर्द अपने घर के बाहर बैठे यूं ही दहाड़ रहे थे। ना ही दिलासा देने के लिए कोई हाथ था ना ही सिर रखकर फफक कर रोने के लिए कोई कंधा था।

नारे अभी भी कानों को भेद रहे थे। अली चाचा के घर में भी आग लग चुकी थी। 3 शवों को लिए यह घर नहीं चिताएं जल रही थी। मैंने भी आज खुद को इसी आग में झोंक दिया था।

मैं चीख रहा था चिल्ला रहा था। मेरे साथ कई कश्मीरी पंडित चीख रहे थे। जैसे बता रहे हो कि तुम अकेले नहीं जल रहे हो हम भी हैं। कई अली भी जल रहे थे पर शायद सब की सिसकियां मौन पड़ गई थी। आंखों में उठती आग की लपटें अंगारे के समान धधक रही थी।

"मैं अकेला नहीं था,

रो रही थी स्वर्ग सरीखी घाटी,

अपनों की दगाबाजी से,

लिपटी फफक रही थी माटी..!!"

घाटी चीखती रही, दहकती रही, जलती रही, सिसकती रही पर यह दर्द भरी चीखें किसी का मौन ना तोड़ सकीं। ना सरकार ना ही दंगाइयों की। किसी का दिल नहीं पसीजा।

मैं लौट तो आया था पर मेरा मन वहीं बैठ गया था। अली चाचा के घर के बाहर घुटनों के बल बैठा हुआ मैं, उठती लपटों को देख रहा था। आज भी मेरे सीने में वे लपटें उठी हुई थी, जल रही थी, सुलग रही थी।

कश्मीरी पंडितों के लिए लगाए गए शिविरों में मैं भी अब मौन था। पूरे 4 साल बीत गए थे। मृगांक रातों में चौंक कर रोते हुए उठ जाता था। उस हादसे की चीखें उस नन्हे से बच्चे के सपनों में उसे डरा देती थी। मां इस सदमे को बर्दाश्त नहीं कर सकीं, वह भी चल बसी। मां के जाने के 2 साल बाद पिताजी भी चल बसे।

वह सब घर वापसी की बाट जोह रहे थे पर मुझे उस घर की कभी आस ही नहीं रही। जब भी घर वापसी का जिक्र होता वही जलता धधकता घर और तीन चिंताएं मेरे सामने आ जाती थी। उन सबका गिड़गिड़ाता चेहरा मन का निचोड़ जाता।

दो हफ्ते गुजर गए थे। मृगांक ने सारी तैयारियां कर ली थी। मैं भी अब लालायित था। अगले दिन हम सब कश्मीर पहुंच चुके थे। मृगांक ने एक होटल में कमरा बुक कर लिया था। सरकार ने फ्लैटों का आवंटन किया था साथ ही रोजमर्रा की जीविका के लिए नौकरियों का प्रबंध भी..!!

हम शाम को होटल पहुंचे तो आज रात होटल में ही गुजारी थी। मृगांक तो खुशी के मारे पूरी रात नहीं सोया। मैं तो सारी रात वो चीखें और धधकता हुआ घर सुनता देखता रहा। वो कर्कश नारे कानों के पर्दे को फाड़ने पर उतारू थे।

कई सवाल मन में थे। कैसी घर वापसी..?? क्या वह घर वैसा ही खिलखिलाता हमें मिलेगा या राख, आग और लाशों का खंडहर बना हुआ मिलेगा..?? यह घर वापसी कम जख्मों को हरा करने का नुस्खा ज्यादा लग रहा था। सारी रात वो दिल दहलाने वाले दृश्य कई मर्तबा आंखों के सामने चल रहे थे।

अगली सुबह मैं और मृगांक अपने गांव की तरफ चल पड़े। कश्मीर की वादियां बदली जरूर थी पर चैन और सुकून आज भी नदारद था। मुस्कुराते फूल भी झुलसे हुए से लग रहे थे। घाटी खूबसूरत लग रही थी पर जलने का वो जख्म आज भी ताज़ा था।

दिल चीख चीख कर रो रहा था। कुछ ही देर में हम दोनों सोपोर के एक कस्बे में खड़े थे। रुलाई मां की गोद में ही आती है। आज मां से शिकायतें करने का जी चाह रहा था।

हम दोनों 2 किलोमीटर तक पैदल चले। जाने क्यों बड़ी बेचैनी सी हो रही थी..?? सामने आज फिर एक खंडहर सा घर खड़ा था। मृगांक तो यह देख कर चौक गया। शायद वह घर वापसी को उस फ्लैट मैं आराम से रहने के लिए सोच रहा था पर सच से उसका सामना तो अब हुआ था। मेरी आंखें अब फड़फड़ा रही थी।

हाथ तो यूँ कांप रहे थे जैसे लकवा मार गया हो। खुद को संभालते संभालते मैं अपनी लाठी का सहारा लिए आगे बढ़ रहा था। घर में चारों तरफ मोटी गर्द धूल जम गई थी। राख और लाशों का अवशेष आज भी वैसा ही पड़ा था। मैं अली चाचा को आज फिर घाव से लिपटा असहाय देख रहा था। मेरे पैर लड़खड़ाने लगे थे। मृगांक ने आज मुझे संभाला था।

मैं फिर उस कमरे की तरफ बढ़ा। आज हिम्मत करके मैं सरोजा के पास पहुंचा। उसकी आंखों के कोनों से एक कतरा आंसू गिरा था। आंखें खूनी लाल हो चुकी थी। मैंने बहुत कोशिश की उसे छूने की पर आज भी हिम्मत नहीं कर सका। आगे बढ़ा तो चित्रा पड़ी थी। अब तक जो आंसू मेरी पलकों पर ठहर गए थे वह भक्क से नीचे आ गए। उसे देख कर तो मैं रो पड़ा। मृगांक एक पल के लिए डर गया और मैं अपनी बांहों में चित्रा को जकड़कर रो रहा था। मेरी चित्रा मौन पड़ी थी। 30 साल से जो आंसू, जो दर्द मेरे सीने में कैद हो गए थे सब भरभराकर बाहर आ रहे थे। सीने के अंदर दर्द और आंसू का एक ज्वालामुखी फूट गया था। मैं चित्रा को सीने से लगाए चीखता जा रहा था।

मृगांक एक दम ठकराया सा खड़ा था। वह मुझे अपनी सर्द आंखों से देख रहा था। उसने मेरे कंधों को धीरे से दबाया और कहा -

" पापा... यह बुआ नहीं... यह तो एक लकड़ी का टुकड़ा है..!!"

मैंने सामने देखा तो हाथ में एक लकड़ी का टुकड़ा था। मेरी चित्रा एक लकड़ी का टुकड़ा थी। मैंने जल्दी से लकड़ी को जमीन पर लिटाया और उठ खड़ा हुआ। मृगांक को जैसे सदमा लगा था। वह भौंचक्का सा मुझे देख रहा था। शायद 30 साल पहले के अग्नि कुंड में जलते इंसानों का अनुमान वह आज लगाने की कोशिश कर रहा था।

मैंने पूरा घर देखा। लाशें तो यहां पर नहीं थी। इस जगह एक नया मकान बन गया था पर मैंने आज वही जला हुआ खंडर देखा था। मेरे पैर लड़खड़ा रहे थे। मृगांक भी हकबकाया हुआ था। उसने मेरे हाथों को थामा और गाड़ी के अंदर आ गया।

मैं अभी भी उस घर को घूर रहा था। आखिर मुझे आज भी वह घर बदला हुआ क्यों नहीं लगा..?? तो मृगांक मेरी आंखों का पीछा करते हुए बोला -

"पापा... यह पहले जैसा नहीं है। सरकार ने हमारी जमीनों को भी वापस करने की कोशिश की है। सरकार ने मुआवजे के तौर पर इस घर को फिर से बनाने की कोशिश की है..!!"

मैं उसकी बातों पर गौर करने लगा -

"मुआवजा..?? तो क्या सरकार मरे हुए लोगों का भी मुआवजा दे रही है..?? क्या उन्हें भी नया करके देगी..??"

यह सुनते ही वह चुप पड़ गया। अब मैं भी खामोश था। मृगांक की सारी खुशी दो पल में ही मिट्टी में मिल चुकी थी।

मृगांक ने अब वापस दिल्ली जाने का फैसला कर लिया था। हम सब होटल में ठहरे थे। आज यह सब देखकर मैं फिर से चुपचाप अपने कमरे में पड़ा रहा। आज मृगांक भी शांत था। रात हो चली थी। मृगांक मेरे कमरे में आया। बिना कुछ बोले ही वह मेरे गले लग कर रोकर लगा -

"पापा... मुझे माफ कर दीजिए। मुझे लगा शायद यहां आकर मैं आपको सुकून दे पाऊंगा पर मैं यह कैसे भूल गया कि जिस जगह आपको इतने दर्द मिले हो वह सुकून भरी कैसे हो सकती है..?? शायद अब मैं भी यहां नहीं जी पाऊंगा। हम कल ही यहां से चेकआउट कर रहे हैं....अब दोबारा कश्मीर कभी वापस नहीं आएंगे... यह घाटी हमारे लिए है ही नहीं..!!"

मृगांक रोते हुए बोल रहा था। मैं भी आज मृगांक के कंधे पर सिर रखकर रोता रहा। 2 घंटे हम दोनों बाप बेटे एक दूसरे के रोने का कंधा बने हुए थे।

अब मैंने मृगांक को समझाया और वह वापस अपने कमरे में चला गया पर उसके दिल में एक हूक सी उठ रही थी। मैंने अपने आंसू पोंछे और एक बार फिर अपनी मंजिल की तरफ निकल पड़ा।

हां... अपने कस्बे की तरफ अपने जले उस घर की तरफ जा रहा था। जहां आज एक नया मकान चमचमा रहा था पर मेरे लिए तो वह राख में धूमिल खून से लथपथ धधकता हुआ घर ही था।

मैं वहां की माटी में आज भी खूनों की लिसलिसाहट महसूस कर पा रहा था। मैं उसी मिट्टी पर दोबारा बैठ गया। घुटनों के बल मिट्टी को हाथ में लिए चूमता रहा। इसी माटी को तो हमने छोड़ा था। इसी माटी के लिए तो हमने अपने खून बहा दिए।

माटी भी शायद रो रही थी। मुझे उसमें भी नमी महसूस हो रही थी। आज घर में अंदर जाने की हिम्मत नहीं हुई। क्या पता चित्रा और सरोजा और अली चाचा का फिर से सामना हो जाता..?? अगर आज वह पूछ बैठते तो मैं उन्हें क्या जवाब देता..?? सरकार ने एक पहल जरूर की थी पर इन कराहती चीखों - पुकारो में मैं जीवन शुरू कैसे कर सकता था..??

30 साल पहले मेरे कानों को चीरती वह चीखे़ं आज फिर तेज हो गई थी। चारों तरफ वह कोलाहल पर शुरू हो गया था। वह नारे आज फिर मेरे कानों को भेंद रहे थे। सरोजा, चित्रा और अली चाचा की दिल दहला देने वाली तस्वीरें फिर आंखों के आगे नाच रही थी। वह तांडव शुरू हो चुका था। एक बार फिर मैंने इस पूरे प्रकरण को जिया। इस दर्द को दोबारा देखा।

शायद मां - पिताजी के गुजर जाने के बाद मैं भी इंतजार कर रहा था यहां आने का..!! सुकून से जी तो नहीं सकता था पर सुकून से मर जरूर सकता था इस माटी की गोद में..!!

कोई और मेरा दर्द समझे या नहीं पर यह माटी जरूर मेरा दर्द समझती। मैंने हाथों में उठाई माटी को जमीन पर रखा और अब जमीन पर सिकुड़ कर लेट गया। महसूस हो रहा था जैसे घाटी भी मुझे गोद में समेटे रो रही थी। मुझे दिलासा दे रही थी। वह मुझे पूरी रात लोरी सुनाती रही। थपकी देकर मुझे सुलाने का जतन कर रही थी। उसकी आंखों की नमी मेरी नसों में घुल रही थी।

सुबह हो गई थी कश्मीरी पंडितों का पुनर्वासन हो रहा था पर मेरी आंखें अनंत को निहार रही थी। मां की लोरी सुनते-सुनते गोद में चिरनिंद्रा हो चुका था। तीन दशक बाद आज सोने का अवसर मिला। मैं जलता रहा, मेरी माटी जलती रही। मेरा शरीर गल चुका था।

सुबह मृगांक बहुत जल्द ही यहां पहुंच गया। शायद उसे अंदाजा था कि मैं यही मिलूंगा। मेरा मृत शरीर देखकर वह रो पड़ा था। नन्हा कपोल मेरे हाथ से मिट्टी लेकर मेरे माथे पर लगा रहा था। आज वो दर्द की सलाखें टूट गई और मैं आजाद होकर मां के पास था। अब न सरकार की जरूरत थी न ही किसी सरकारी योजना की।

सब रो रहे थे और मृगांक रोते हुए बुदबुदाया -

"पापा... मुझे माफ कर दीजिए। सुकून की जिंदगी तो आपको नहीं दे पाया पर उम्मीद करता हूं कि अपनी माटी की गोंद में सुकून की मौत जरूर आई होगी..!"

मेरी सांस, जो वर्षों से इस जिस्म में अटकी थी वह निकल चुकी थी। मृगांक ने मुझे यही जला दिया और यहां से तुरंत निकल गया। वह अब यहां सांस नहीं ले सकता था। जो दर्द मैंने महसूस किया था आज वह दर्द, वह घाव लिए मेरा बेटा कश्मीर से वापस लौट रहा था।

उसने एक बार इस घर की तरफ देखा और मुस्कुराते हुए बोला -

"चैन से तो अब मुझे भी नींद नहीं आएगी पर चैन की नींद सोने कभी इस माटी की गोद में मैं भी आऊंगा..!! शायद मां की लोरी सुनकर ही अच्छी नींद आती है..!!"

उसकी आंखें बह रही थी।

मृगांक अब वापस दिल्ली के लिए जा चुका था और मैं वही घुटनों पर बैठा उसे देख कर मुस्कुराया। ये जख्म़ ताउम्र हमें सालता रहेगा। हम जलते रहेंगे साथ ही ये घाटी हमेशा सिसकती रहेगी।

" यह घाव मुझे दर्द में जीने नहीं देता पर मां की गोद में लिपट कर चैन से सोने का मौका जरूर देता है।"

समाप्त!



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