"पिता जी की साइकिलिंग"
"पिता जी की साइकिलिंग"
बचपन में सभी लोग अपने पिता जी की साइकिल पर अवश्य बैठे होगे। उसी प्रकार मै भी बचपन में अपने पिता जी की साइकिल पर बैठता था। आज के जमाने में बच्चे अपने पापा के बाइक और कारो में ही बैठ कर पार्क जाते है। उस समय मेरा पापा मुझे अपनी पतली टायर वाली साइकिल के डंडे पर तौलिए को लपेट कर मुझे उस पर बैठा कर, मेरे दोनो पैरो को साइकिल के आगे वाली मेड गार्ड पर रखवाते थे। और मैं भी बड़े शान से एक पैर को दूसरे पर रखकर साइकिल की सवारी का आनंद लिया करता था।
समय के साथ धीरे धीरे पिता जी ने हीरो एवन की साइकिल खरीद ली। फिर भी मेरे साइकिल पर बैठने की स्टाइल वही थी। पिता जी भी साइकिल के डंडो पर तौलिये को बकायदा लपेट दिया करते थे। मैं भी बकायदा राजा महराजा की तरह बैठकर हर जगह जाता था।
बचपन में पिता जी की साइकिल की सवारी में जो आनंद आता था। वो आनंद आज लाखो की कार में बैठकर भी नही आता है।
वो समय भी याद है जब पिता जी साइकिल पर ही मुझे बैठाकर नानी के घर ले जाया करते थे। साइकिल पर बैठकर मैं रास्ते भर के नजारो का आनंद लिया करता था। नानी के घर जाते समय बीच में कब्रिस्तान पड़ता था। उस समय चील और गिद्ध भारी तादाद में कब्रिस्तान के आस पास मंडराते थे। उनको देखकर बड़ा ही डर लगता था। फिर अहसास होता था कि मैं अपने पापा के साथ साइकिल पर हूँ।
समय के साथ धीरे धीरे पापा ने टू व्हीलर खरीद लिया। बात 1997 की है। मैं 7वी में था। उस दिन स्कूल में मेरा मासिक टेस्ट था। पिता जी रोज अपने हीरो पुच से स्कूल छोड़ते थे। उस दिन उनकी हीरो पुच पंचर हो गई थी और उस समय स्कूल का टाइम भी हो रहा था। यानि गाड़ी के पंचर बनवाने का भी समय नही था।
उसी समय पापा ने बगल वाले की साइकिल लेकर, पीछे की कैरियल पर बैठाकर मुझे स्कूल छोड़ने चल दिए। अधिकतर जो लोग साइकिल छोडने के बाद गाड़ी के आदि हो जाते है, वो दुबारा साइकिल चलाने में समय लेते है। पर पिता जी को इतने दिन बाद भी बेहतरीन तरिके से साइकिल चलाना मेरे लिए सुखद अनुभव था।