Rita Chauhan

Children Inspirational

5.0  

Rita Chauhan

Children Inspirational

रिज़ल्ट

रिज़ल्ट

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ये बात है कुछ 1992 की, पाँचवीं का रिज़ल्ट आया था और मैं उत्तीर्ण हो गयी थी 67% अंकों के साथ।

अपने रिज़ल्ट से अधिक मुझे प्रसन्नता थी छठवीं कक्षा में आने की।

मुझे प्रसन्नता थी कि मुझे छुट्टी मिलेगी अब मेरी कक्षाध्यापिका से जो गत 5 वर्षों से मेरी गणित की भी अध्यापिका थीं।

बहुत प्रयास किये उनके मनभावन कार्य करने के, पर वो कभी समझ नहीं पायीं की सब बच्चे एक से नहीं होते।उन्हें मुझसे कुछ चिढ़ सी थी, किसी का भी गुस्सा हो वो मुझ पे उतारतीं।

हर समय बस यही कहतीं की इसके बस का नहीं है, ये कुछ नहीं कर सकती। उनका भय था मेरे हृदय में और तभी गणित से भी दूरी सी हो गयी थी।

यही सब चल रहा था मेरे मस्तिष्क में कई अब इन सब से छुट्टी मिलेगी और मैं नई कक्षा में जाऊंगी।

नई बिल्डिंग में, जी हां हमारे विद्यालय में छठवीं से बारहवीं कक्षा के लिए अलग बिल्डिंग थी। कक्षा का प्रथम दिन, बड़ा अच्छा लग रहा था वहां बड़ी कक्षा में बैठकर।

नई – नई पुस्तकें, सुंदर जिल्द चढ़ी कॉपियां, नया बस्ता, पानी की नई बोतल मिल्टन वाली !

उन दिनों मिल्टन की बोतल होना भी अपने आप में काफी बड़ी बात होती थी। राजाओं-महाराजाओं जैसा प्रतीत हो रहा था। ये मेरे लिए एक नई शुरुआत थी, पिछले सब भूल जाना चाहती थी और प्रतीक्षा में थी कि नए अध्यापक गण कैसे होंगे।

अपने अपने पीरियड में सभी अध्यापकों ने अपना परिचय दिया और हम सब बच्चों ने बारी-बारी से अपना।

उस दिन सभी ने हमें अनुशासन का पाठ पढ़ाया व कौनसी कापियों में कैसे काम करना है ये बताया।

गणित और विज्ञान के अध्यापक व्यवहार से थोड़े कठोर प्रतीत हुए। बाकी सब ठीक ही लगे। धीरे-धीरे समय बीतने लगा। गणित व विज्ञान वाले अध्यापकों का व्यवहार कठोरतम हो चला। यहां तो पहले से ही गणित से दूरी सी थी अब और पढ़ने का मन नहीं करता।

सामाजिक अध्ययन की अध्यापिका जी हमें पिछले साल की कॉपी में से काम करवा देतीं। कुल मिलाकर जैसा सोच था वैसी नई शुरुआत हो न सकी। हमारा पढ़ाई से मन हटने लगा। तभी विद्यालय में अनेक गतिविधियां प्रारम्भ होने लगीं।

हमने भी सबमे भाग ले लिया और हर समय बस उन्ही सबके अभ्यास में लगे रहते। पढ़ाई में ध्यान बिल्कुल नहीं था। क्लास से भाग कर बस विभिन्न गतिविधियों के अभ्यास में लगे रहते। मासिक परीक्षा शुरू हुईं और हम लगभग हाशिये पे पास हुए। गणित और विज्ञान में तो पास ही नहीं थी। उनकी कापियां घर में दिखाई ही नहीं।

इसी बीच हमने ट्यूशन लगवा लिया, यद्यपि उन दिनों ट्यूशन पढ़ना शान के खिलाफ माना जाता था पर हमने अपनी किसी भी सहेली को बिना बताए वहां जाना ठीक समझा।

वहां हमें पढ़ाने के अलावा कुछ और ही सिखाया जाता, कि देखो हम ये समान भी बनाते हैं, तकिये के कवर इत्यादि सब बनाते हैं, ये सब तुम घर पे, अपने पड़ोस वगैरह में बताना। उनका पूरा परिवार घर से बिज़नेस चलाते थे और वहां हमें बिज़नेस सिखाया जाता।

रोज़ एक नया समान बनाकर सामने रख देते फिर उसके बारे में बताते रहते। बाकी पढ़ाने के नाम पर कुंजियों से उत्तर लिखवा देते। कुछ समय पश्चात अर्धवार्षिक परीक्षा हुईं और में मैं फैल हो गयी थी सभी विषयों में।

मात्र हिंदी और अंग्रेज़ी में 40 - 40 नंबर थे सौ में से।

बहुत डर लगा, जब उत्तर पुस्तिकाएं घर ले जाने के लिए मिलीं और उन सभी पर पिताजी के हस्ताक्षर करने थे।

स्कूल से घर तक जाने के लिए पहले स्कूल से बस में जाती थी जो हमें घर से काफी दूर रेलवे स्टेशन पर उतारती फिर वहां से घर तक जाने में मुझे आधा घंटा लगता था, पर उस दिन कदम आगे बढ़ ही नहीं रहे थे और में एक घंटे में घर पहुंची।

उस डेढ़ घंटे में न जाने कितने ही विचारों ने मन में आतंक मचाया। कभी सोचा जाते ही मम्मी - पापा के पैर पकड़के क्षमा मांग लूंगी, कभी लगा आज घर ही नहीं जाती, कभी सोचा काश मुझे ज्वर हो जाए तेज़।

काश मुझे चोट लग जाए ज़ोर से, ज़ोर से बारिश हो जाए और मेरा बस्ता भीग जाए, भूकंप आया जाए।

विचारों का समुद्र उमड़ रहा था हृदय में और इसी उधेड़बुन में मैं घर पहुंच गई। और जैसे विचार मेरे मन में उमड़ रहे थे वैसा कुछ भी नहीं हुआ।

उस समय सब मिल-जुल के रहते थे, न फ़ोन थे, न ही दूरदर्शन के अलावा कोई और चैनल आता था। तो सभी गृहणियाँ दोपहर में काम करके एक साथ बाहर आकर बैठ जाती थीं बातें करने।

मम्मी भी बाहर ही बैठी थीं। मेरे देर से घर पहुंचने पर उन्होंने मुझसे देरी का कारण पूछा, मैंने बात दिया कि आज बस देरी से आई थी। मैं जल्दी से घर में गयी और जो समझ आया वो किया, सभी उत्तर पुस्तिकाओं में नंबर बढ़ा लिए और बाहर मम्मी को दिखाने गयी।

मम्मी को थोड़ी शंका हुई कि हर पेपर में नंबर काट कर क्यों लिखे हैं

पर हमने भी कह दिया कि वो मैम से गलती हो गयी थी। अब शाम को पापा को दिखाने की बारी आई।

पर पापा समझ गए। मुझे बहुत डर लगा की न जाने पापा क्या करेंगे, पापा ने कुछ नहीं कहा और उठकर अंदर कमरे में चले गए।

अब तो और भी ज़्यादा उथल – पुथल मच गई मन में। न जाने पापा क्या करेंगे। रात का खाना भी पापा ने अलग कमरे में खाया। रात में हिम्मत जुटा कर मैंने उनके पास जाकर क्षमा मांगने का निर्णय किया। पर पापा सो चुके थे।

अगले दिन कक्षाध्यापिका ने उन्हें मिलने के लिए बुलाया था। रात भर सो ही नहीं पायी ये सोच कर की पापा और मम्मी को बहुत दुखी किया है मैंने, पता नहीं पापा के मन में क्या चल रहा है।

सुबह उठकर उनके सामने जाकर हाथ जोड़े ही थे कि आंखों से अश्रु धारा बह निकली , कुछ बोल ही नहीं पायी। मैं स्कूल के लिए निकल गयी।

स्कूल पहुंचने पर मैम ने पापाजी के आने के बारे में पूछा।

मुझे पता यो था नहीं पर बोल दिया कि आज पापा को काम है पर समय निकाल कर आएंगे शायद।

दूसरा पीरियड शुरू होते होते पापा आ गए। मुझे बुलाया गया, सर झुकाकर, आंखों में शर्म लिए मैं वहां पहुंची।

पापा मैम को मेरी उत्तर पुस्तिकाएं दिखा चुके थे।

मुझे नहीं पता उन दोनों में क्या बात हुई। बस चलते समय उन्होंने कहा कि आपकी बेटी इस साल पास नहीं हो सकती।

आप रहने दीजिए और इसे दोबारा से छटी कक्षा करवाइये। पापा कुछ नहीं बोले और मुझे लेकर वापिस घर आ गए। उन्होंने मुझे अपने पास बैठाया , प्यार से मेरे सर पे हाथ फिराया।

पूछा – डर गयी थी न बेटा ? मैं ध्यान नहीं दे पाया तुझ पर। अपने काम में थोड़ा ज्यादा व्यस्त हो गया था।

कोई बात नहीं अब से और आज ही से मैं पढ़ाऊंगा तुझे। हम दोनों मेहनत करेंगे और देखना तुझे कोई ज़रूरत नहीं पड़ेगी यही कक्षा दोबारा पढ़ने की।

आंखों से अश्रु रुक ही नहीं रहे थे। ठान लिया था कि ऐसा दोबारा कभी नहीं करूँगी और पापा के साथ मिलकर खूब मेहनत करनी है और पास तो मुझे होना ही है।

ट्यूशन छोड़ दिया। बस फिर क्या उसी दिन से एक -एक अध्याय पापा ने पढ़ाना शुरू किया, रोज़ आफिस से आने पर थके होने के बाद भी निरंतर मुझे पढ़ाते। मुझे सब समझ आता जा रहा था।

स्वयं भी पढ़ाए गए सभी पाठों का अभ्यास करती। ऐसे ही निरंतर अभ्यास करते - करते वार्षिक परीक्षाएं समीप आ गईं।

हमने अपना अभ्यास और बढ़ा दिया। रात में देर तक पढ़ते।

हमें अधिक से अधिक अंक लाने थे पिछला सब हिसाब पूरा करने के लिए व पास होने के लिए। परीक्षाएं शुरू हुईं। पापाजी ने कहा शांत मस्तिष्क से जितना आता हो वो करके आना बाकी चिंता करने की कोई आवश्यकता नहीं।

हमने परीक्षाएं दीं और आखिरकार निर्णय की घड़ी आ गयी।

मैं पापाजी के साथ रिजल्ट लेने स्कूल गयी। मेरे साथ-साथ पापाजी के मन में भी बेचैनी थी मेरे रिजल्ट को लेकर। वो कह नहीं रहे थे पर उनके हाव भाव से ये स्पष्ट था। मेरी कक्षाध्यापिका ने मुझे और पापाजी को पास बुलाया और विनम्रता से पापाजी से पूछा – आपने क्या जादू किया भाई साहब !

आपकी बेटी टॉप टेन में आ गयी है। आपने ये किया कैसे ? पापाजी के चेहरे पे खुशी मैं साफ देख सकती थी। उनकी मेहनत सफल हुई थी। एक संतुष्टि का भाव जैसे हाँ मैंने उनकी बात की लाज रख ली, वही बात जो उन्होंने मेरी मैम से कही थी कि आप ऐसा न कहें कि मेरी बेटी फैल हो जाएगी, इस बार पास होना इसके बस का नहीं। मैं बिना इसको बताए ये आपसे वादा करता हूँ कि ये न सिर्फ पास होगी बल्कि आपकी क्लास के टॉप टेन बच्चों में भी अपना स्थान बनाएगी।

मैम को पछतावा था अपनी बात पर। उन्होंने माना कि हाँ उन्हें ऐसे किसी भी बच्चे को ऐसे निरुत्साहित नहीं करना चाहिए। उन्होंने दिल खोलकर शाबाशी दी मुझे और बाकी अध्यापकों को भी मेरे बारे में बताया।


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