हरि शंकर गोयल "श्री हरि"

Inspirational

3.7  

हरि शंकर गोयल "श्री हरि"

Inspirational

सन्यासी और रानी

सन्यासी और रानी

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सन्यासी और रानी मन की उड़ान अनंत है । कामनाओं की कोई सीमा नहीं है । इच्छाएं बियाबान जंगल की तरह हैं जिनमें गन्तव्य खोजना बालू में से सुंई ढूंढने जैसा दुष्कर कृत्य है । जिसने अपने मन रूपी पंछी की उड़ान को काबू में कर लिया , वही यतात्मा है । पर ऐसा करना क्या संभव है ? जो व्यक्ति ऐसा कर पाता है वहीं तो "योगी" कहलाता है । बहुत प्राचीन बात है । एक राजा था । बहुत नेक, बहुत सज्जन । प्रजा को अपने पुत्र की तरह पालता था वह । उसके राज्य में सब लोग प्रसन्न थे । क्या धनवान और क्या गरीब , सब राजा की प्रशंसा किया करते थे । वह बहुत वीर भी था इसलिए पड़ोसी राजा उसके राज्य की ओर आंख उठाकर भी देखने का साहस नहीं करते थे । साधु संन्यासियों और योगियों का बहुत सम्मान करता था वह राजा । 

राजा को शिकार खेलने का बहुत शौक था । जब जी चाहता , शिकार खेलने निकल जाता था । एक दिन वह जंगल में शिकार खेलने गया । उसे कोई जंगली जानवर नजर ही नहीं आया । वह जानवरों की तलाश में घने वन में चला गया । वहां उसे हिरनों का एक झुंड दिखाई दिया । वह अपने धनुष पर बाण का संधान करने लगा । इतने में खतरा जानकर हिरन भाग छूटे । राजा उनके पीछे पीछे दौड़ा । रथ दौड़ाते दौड़ाते वह थक गया लेकिन हिरनों का शिकार नहीं कर पाया । वह प्यास के कारण बेहाल होने लगा । 

रथ से उतर कर वह घने जंगल में पानी की तलाश करने लगा लेकिन उसे कहीं पर भी जल नजर नहीं आया । प्यास के कारण उसका गला बिल्कुल सूख गया था । एक एक कदम चलना भी उसके लिए भारी पड़ रहा था । फिर भी उसने हिम्मत नहीं हारी और वह जल की तलाश में आगे चलता ही चला गया । 

उसे दूर एक कुटिया दिखाई दी । उसकी उम्मीदों को नये पंख लग गये । पैरों में भी जान आ गई । जब मन में आशा का संचार हो जाता है तो शरीर के सारे अंगों में जान आ जाती है । वह जैसे तैसे उस कुटिया तक पहुंचा और उसके दरवाजे पर जाकर धड़ाम से गिर पड़ा । 

कुटिया एक संन्यासी की थी । उसने धड़ाम की आवाज सुनी तो उसकी निगाहें उधर की ओर मुड़ीं । दरवाजे पर एक राजा को पड़ा हुआ देखकर वह दौड़ा और उसने राजा को उठाकर एक बिछौने पर लिटा दिया और उस पर ठंडे जल के कुछ छींटे मारे । शीतल जल का कमाल था कि राजा की मूर्छा टूट गई और उसने अपनी आंखें झट से खोल दीं । 

"पानी ..." मरी मरी आवाज में राजा ने कहा । 

सन्यासी तुरंत पानी लेकर आये और राजा को ठंडा पानी पिलाया । पानी पीते ही राजा की जान में जान आ गई और वह उठकर बैठ गया । सन्यासी ने उसे कुछ मीठे मीठे फल दिए जिन्हें खाकर राजा का पेट भर गया । जब क्षुधा शांत हो जाती है तो व्यक्ति का ध्यान बाकी चीजों की ओर जाता है । राजा का ध्यान अब उस सन्यासी की ओर गया । कितना तेज था उस सन्यासी के चेहरे पर ! चेहरा चंद्रमा की तरह दमक रहा था । राजा सन्यासी को देखकर उसके प्रति श्रद्धा से भर गया और उसने सन्यासी को दण्डवत प्रणाम करते हुए कहा 

"आपके दर्शन करके मैं कृतकृत्य हो गया प्रभो ! आपने जल और फलों से मेरे प्राणों की रक्षा की है अतः मैं आपका ऋणी हूं । आप जो चाहें मुझसे मांग सकते हैं" । 

"एक संन्यासी अपने लिए नहीं जीता है राजन ! वह समाज और राष्ट्र के लिए ही जीता है । सन्यासी भोग और संग्रह से सर्वदा दूर रहते हैं । मुझे किसी चीज की कोई आवश्यकता नहीं है । जब महसूस होगी तो मैं आपसे मांग लूंगा । ठीक है" ? 

"ठीक है" । राजा सन्यासी के संयम को देखकर अभिभूत था । भोग विलास से दूर कामनाओं को नियंत्रित करने वाला व्यक्ति देव स्वरूप ही होता है । राजा का मन भोग विलास से उचट कर सन्यास में रमने लगा । सन्यासी ने राजा को दो चार दिन अपनी कुटिया में ही रोक लिया था । राजा को अपना जीवन व्यर्थ लगने लगा । राजा ने सन्यासी से अपना अतिथि बनने का आग्रह किया जिसे सन्यासी ने स्वीकार कर लिया । राजा अपने महल में वापस आ गया । 

उस घटना को व्यतीत हुए एक लंबा अरसा गुजर गया । एक दिन राजा के दरबार में वही सन्यासी आया । राजा उसे पहचान गया और उसने सन्यासी को अपने आसन पर बैठाया । सन्यासी राजा के स्वागत सत्कार से अभिभूत हो गया । राजा सन्यासी को अपने महलों में लेकर आ गया । 

सन्यासी का महल में रानी ने स्वागत किया । रानी का सौंदर्य देखकर सन्यासी बहुत आश्चर्यचकित हुआ । ऐसा सौंदर्य तो अप्सराओं का भी नहीं होता है जैसा रानी का था । सन्यासी अपलक रानी को निहारता रह गया । उसका सारा ज्ञान पल भर में छूमंतर हो गया । "योग" किसी बिल में छुप गया । सौंदर्य की चमाचम ने वैराग्य को डस लिया । जिस मन पर उसने इतने वर्षों तक विजय प्राप्त की थी वह बेलगाम होकर मुक्त अश्व सा दौड़ने लगा था । सन्यासी को अपनी इस स्थिति पर बड़ी लज्जा आई । इससे पहले कि राजा और रानी उसके मन के भाव पढ़ पाते , उसने मन ही मन अपने गुरु का नाम लिया और अपने मन पर नियंत्रण करने का प्रयास किया । 

राजा ने रानी को कहा "ये सन्यासी बहुत ऊंचे हैं । इन्होंने अपनी कामनाओं पर नियंत्रण स्थापित कर रखा है । उस दिन सघन वन में इन्होंने ही मेरी जान बचाई थी । अब आपका दायित्व है कि आप इनका पूरा ध्यान रखें । मैं अभी चलता हूं" । कहकर राजा अपने दरबार में आ गये । रानी पूरे मनोयोग से सन्यासी की सेवा करने में जुट गई । 

सन्यासी के मन की हालत बड़ी विचित्र हो रही थी । मन बार बार रानी के सौंदर्य रुपी जाल में उलझ रहा था जिसे सुलझाने का कोई मार्ग सन्यासी को समझ में नहीं आ रहा था । एक बार तो सन्यासी ने सोचा कि वह रात में चुपके से यहां से भाग जाये। "लेकिन यह तो कायरता होगी" । ऐसा सोचकर वह वहीं रुका रहा । 

रानी के प्रत्येक अंग में काम रस के सैकड़ों कलश भरे हुए थे । रानी अपने हाथों से सन्यासी को नहलाती थी । रानी के हाथों का स्पर्श पाकर सन्यासी कामावेग में दग्ध होने लगता था । उसने रानी को नहलाने के लिए मना कर दिया । रानी जब सन्यासी को अपने हाथों से खाना खिलाने लगी तो भी उसकी गति वैसी ही हुई । सन्यासी ने रानी को खाना खिलाने से भी रोक दिया था । रानी ने राजा से यह सारा हाल सुनाया तब राजा दौड़ा दौड़ा आया और हाथ जोड़कर बोला "प्रभु , क्या मुझसे कोई त्रुटी हुई है जो आप रानी की सेवाएं लेने से इन्कार कर रहे हैं" ? 

तब सन्यासी ने कहा "नहीं राजन ! मैं रानी की सेवाओं से बहुत प्रसन्न हूं लेकिन मैं बहुत भी शर्मिन्दा हूं कि रानी के अप्रतिम सौंदर्य ने मेरे मन में खलबली मचा कर रख दी है । मेरा रोम रोम कामावेग में बुरी तरह दग्ध हो रहा है । मन अस्थिर हो गया है । अब तो इसका एक ही उपाय है जिसे कहते हुए मैं बहुत लज्जित हो रहा हूं । क्या आप अपनी रानी को मुझे दे सकते हैं ? मैं प्रणय के धागे से बंधा गया हूं और उनके साथ कुछ दिन रहना चाहता हूं" । सिर नीचा किए हुए सन्यासी बोला । 

राजा को जंगल की बातें याद आ गईं । तब राजा ने सन्यासी को कुछ मांगने को कहा था लेकिन सन्यासी ने फिर कभी लेने के लिए कह दिया था । तो क्या अब वह समय आ गया है ? राजा ने सोचा और सोचकर कहा 

"प्रभो ! यह मेरा सौभाग्य है जो आपने मुझे इस योग्य समझा । मैं अभी रानी को लेकर आपकी सेवा में उपस्थित होता हूं" । कहकर राजा चला गया । 

राजा रानी के पास गया और उसे सारी बातें बता दीं । रानी सोच में पड़ गई । वह एक पतिव्रता स्त्री थी जो पर पुरुष के बारे में सोच भी नहीं सकती थी । उसने एक पल सोचकर कहा "स्वामी , आप चिंता ना करें ! प्रभु मुझे इस धर्मसंकट से अवश्य निकाल लेंगे । आप तो मुझे उन सन्यासी को सौंप दीजिए, आगे मैं देख लूंगी" । 

रानी सोलह श्रृंगार करके आईं और राजा के साथ सन्यासी के पास आ गई । राजा ने रानी को सन्यासी को सौंप दिया । इसके पश्चात राजा चला गया । 

"आओ प्रिये, मेरे अंक में समा जाओ । मैं आपके सौंदर्य के दर्शन करने को कबसे लालायित हूं" सन्यासी ने बांहें फैलाते हुए कहा । 

"तनिक धैर्य रखें, प्रभु ! मैं अब आपकी ही हूं । आप पर मेरा सर्वस्व न्यौछावर है । सौंदर्य भी और मादकता भी । लेकिन एक समस्या है । यह मेरे पति का महल है । इसकी हवा में मेरे पति के बदन की सुगंध भरी हुई है । जब तक मेरे नथुनों में वह सुगंध बसी है , मैं आपकी कैसे हो सकती हूं । अब आप मेरे स्वामी हैं इसलिए आपका आंगन ही मेरा स्थान होगा । वहीं पर ही मिलन हो तो श्रेष्ठ होगा" । 

सन्यासी को बात जम गई और उसने राजा को बुलवा कर एक रथ तैयार करवा लिया । रथ में सवार होकर वे दोनों सन्यासी की कुटिया में आ गए । 

कुटिया को देखकर रानी नाक भौंह सिकोड़ कर बोली "ये क्या हैं ? मेरा कोमल तन इस कुटिया में कैसे रहेगा ? मेरे लिए कोई अच्छे से महल की व्यवस्था करें प्रभु" । 

सन्यासी ने सोचा "बात तो सही कह रही है रानी । यह कोमलांगी इस कुटिया में कैसे रहेगी ? पर मैं महल भी कहां से लाऊंगा" ? 

सन्यासी को राजा का ध्यान आया । वह राजा के पास गया और अपने लिए एक महल मांग लिया । राजा उदार हृदय था इसलिए उसने एक महल दे भी दिया । 

जब सन्यासी रानी को उस महल में लेकर आया तब रानी ने कहा "ये क्या ? यहां तो एक भी सेवक - सेविका नहीं हैं । कौन साफ सफाई करेगा ? कौन खाना पकायेगा और कौन बाकी काम करेगा" ? 

सन्यासी को समझ में आ रहा था कि स्त्री को प्रसन्न रखना कितना कठिन काम है ? पर ओखली में सिर दिया है तो मूसल से क्या डरना ? सन्यासी राजा के पास गया और सेवक - सेविकाओं की फौज लेकर आ गया । 

सेवक सेविकाओं ने वह महल चमका दिया था । अब रानी कहने लगी "आपके साथ शैय्या पर आने से पहले मैं एक बार स्नान करना चाहती हूं । मेरे वस्त्र किधर हैं" ? 

सन्यासी ने ये तो सोचा ही नहीं था । एक और मुसीबत ! रानी के रेशमी वस्त्र कहां से लाये वह ? राजा से बार बार मांगना भी उसे सही नहीं लग रहा था । कामनाऐं मनुष्य को कितना दौड़ाती हैं । उसे स्वामी से भिक्षु बना देती हैं । जब तक सन्यासी का कामनाओं पर नियंत्रण था, वह एक स्वामी की तरह था जो अब एक भिक्षु बन गया है । वह लज्जित होते हुए राजा के पास गया और उससे रानी के लिए नये नये वस्त्र मांगे । राजा ने मुस्कुराते हुए सन्यासी की यह कामना भी पूरी कर दी । सन्यासी वस्त्र लेकर आ गया । 

तब रानी ने कहा "स्नान करने के लिए जल में डालने को इत्र, केवड़ा किधर है । मेरे अंगों पर लगाने के लिए कुंकुम, केसर , चंदन कहां है प्रभो" ? 

अब सन्यासी तंग आ गया था । काम वासना ने उसे रानी का गुलाम बना दिया था । वह चिढ़कर बोला "मैं आपका दास नहीं हूं रानी ! आपकी इच्छाएं तो अनंत हैं, उनकी पूर्ति नहीं कर सकता हूं मैं" ! सन्यासी आवेश में आ गया था । 

सन्यासी की हालत देखकर रानी खिलखिलाकर हंस पड़ी । "आपने एक रानी के साथ प्रणय करने की कामना की थी प्रभो । आप जब तक रानी की समस्त कामनाओं की पूर्ति नहीं करोंगे तब तक वह आपके साथ प्रणय कैसे कर सकती है ? और यदि वह विवश होकर आपके साथ प्रणय करेगी तो उसमें आपको आनंद कैसे आयेगा" ? 

रानी की बात सोलह आने सही थी । लेकिन वह भी क्या करे ? बार बार राजा से मांगना भी तो सही नहीं है ना ? 

तब रानी ने कहा "प्रभो , काम , क्रोध, मद , लोभ ये मनुष्य के चार सबसे बड़े शत्रु हैं । "काम" तो वह रस है जिसके पीने से कभी तृप्ति नहीं होती बल्कि प्यास और बढ़ जाती है । आप तो ज्ञानी हैं , विद्वान हैं , विवेकवान हैं, बुद्धिमान हैं । मेरा आपको समझाना अच्छा लगता है क्या ? आज आपकी हालत क्या से क्या हो गई है ! आपके चेहरे की चमक न जाने कहां गायब हो गई है । जो कामनाओं के भंवर में फंस गया , उसका डूबना तय है और जो कामनाओं पर नियंत्रण पाने में सफल रहा , वही मनुष्य है वरना तो पशु और मनुष्य में अंतर क्या है" ? 

सन्यासी को अब अपनी भूल का अहसास हो गया था । वह दौड़कर राजा के दरबार में पहुंचा और राजा को साष्टांग प्रणाम करते हुए कहने लगा "सही मायने में आप सबसे बड़े सन्यासी हैं । आपने अपनी पत्नी को किसी और के साथ शयन करने की इजाजत दे दी किन्तु इसके बाद भी आपके चेहरे पर एक शिकन तक नहीं आई । रानी ने अपनी बुद्धिमत्ता से न केवल आपके आदेश और अपने पतिव्रत धर्म का मान रखा अपितु मुझे भी ज्ञान का पाठ पढ़ाया , यह अद्भुत है । मैं अपनी कामनाओं पर नियंत्रण स्थापित करने में असफल रहा । मेरी साधना अभी अधूरी है । आप जैसा राजा आदर्श है जो राजा होकर भी सन्यासी जैसा व्यवहार करता है । मुझ जैसा सन्यासी सन्यासी होकर भी "कामान्ध" की तरह व्यवहार कर रहा है । अब मैं इसका प्रायश्चित करूंगा" । और सन्यासी जंगल में चला गया । 



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