सतीश खनगवाल

Others

4.9  

सतीश खनगवाल

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सपनों का घर

सपनों का घर

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‘‘नहीं-नहीं कुछ तो है, वर्ना तुम ऐसे शांत बैठने वालों में से नहीं हो। बताओं ना क्या बात है? कहीं आज फिर उस मीना से नोंकझोंक तो नहीं हो गई।’’ पूनम ने जानबूझकर मीना का जिक्र करके उसे छेड़ा था। जिससे उसका मन थोड़ा हल्का हो जाए। मीना संजय के ऑफिस में थी। दोनों समान पद पर थे परंतु दोनों के कार्यक्षेत्र अलग थे। कार्यक्षेत्र भले ही अलग हो लेकिन ऑफिस तो एक ही था, इसलिए किसी ना किसी बात को लेकर अक्सर दोनों में नोकझोंक हो जाती। फिर दोनों में सप्ताह भर बातचीत बंद रहती। लेकिन जैसे काम के सिलसिले में बातचीत बंद होती वैसे ही धीरे-धीरे बातचीत फिर शुरु हो जाती।

‘अरे नहीं, वह तो पिछले तीन दिन से छुट्टी पर है।’’ संजय ने बताया।

 ‘‘अच्छा तो तभी जनाब का मूंड खराब है पिछले तीन दिन से देवी के दर्शन जो ना हुए।’’ पूनम ने फिर छेड़ा। उसका इस तरह छेड़ना संजय को अच्छा लगा था। उसके चेहरे पर एक हल्की सी मुस्कान छा गई। वह केवल इतना ही बोल पाया, ‘‘तुम भी ना बस...।’’

 ‘‘तो फिर बताओं, क्या बात है?’’

 ‘‘आज अनुराग ने भी ‘टू बीएचके’ फ्लैट ले लिया।’’

 ‘‘अनुराग...वहीं जिसने तीन-चार साल पहले ही तुम्हारे ऑफिस में क्लर्क की पोस्ट पर ज्वाइन किया था?’’

‘‘हॉं, देखो उसे ज्वाइन करे अभी केवल चार साल हुए हैं। आज उसके पास भी इस महानगर में अपना घर है। कह रहा था अब एक-दो साल में शादी कर लेगा। और एक मैं हूँ जिसे नौकरी करते हुए पन्द्रह साल से ऊपर हो गए, परंतु अभी तक किराए के ही मकान में गुजारा कर रहा हूँ। अब तो लगता है कि ऐसे ही रिटायर भी हो जाऊॅंगा।’’ कहते हुए संजय ने एक लम्बी सांस छोड़ी। पूनम उसके मन की निराषा को भांप गई थी। उसने संजय का हाथ अपने हाथ में पकड़ा और बोली, ‘‘तुम क्यों निराश होते हो। तुम देखना जल्द ही अपने पास भी इस शहर में अपना एक घर होगा।’’ उसने संजय को दिलासा तो दे दी थी परंतु जानती वह भी थी कि यह इतना आसान नहीं है। इसलिए संजय का ध्यान बंटाने के लिए कहा, ‘‘चलों जल्दी से मुॅंह-हाथ धो लो, मैं चाय-नाश्ता लेकर आती हूँ। फिर साग-सब्जी भी लानी है, आज बाजार लगा होगा।’’ कहकर वह रसोई की ओर चल दी। संजय ने भी मुॅंह-हाथ धोने के लिए बाथरूम की राह ली।

   संजय अपने माता-पिता की चौथी संतान था। संजय के इंतजार में उसके माता-पिता उसकी तीन बहनों को दुनिया में ला चुके थे। पिताजी गॉंव में ही मेहनत-मजदूरी का काम करते थे। संजय की मॉं भी किसी के खेत-खलिहान में मजदूरी कर आती थी। घर की स्थिति अच्छी नहीं थी। जैसे-तैसे दो समय की रोटी का जुगाड़ हो पाता था। लेकिन केवल रोटी का, सब्जी तो कभी-कभी ही नसीब होती थी। रोटी कभी प्याज के साथ तो कभी हरी मिर्च के साथ, कभी गुड़ के साथ तो कभी सिल-बट्टे पर पिसी चटनी के साथ पेट में उतारी जाती थी। ऐसे में चार बच्चों को पढ़ा पाना किसी भी तरह संजय के पिताजी के वश में नहीं था। फिर भी उन्होंने अपने चारों बच्चों का नाम गांव के सरकारी स्कूल में लिखवा दिया था। फीस लगती नहीं थी upऔर किताबें स्कूल से मिल जाती थी। कभी पुरानी कॉपी-किताबों के लिए संजय का बापू गॉंव में जाकर लोगों के हाथ-पैर जोड़ता। चिरौरी करता।

    दिन पर दिन बीतते गए और संजय दसवीं पास कर गया था। गॉंव का स्कूल दसवीं तक ही था। अब आगे की पढ़ाई के लिए उसे पड़ौस के कस्बे में जाना था। पढ़ाई भी अब कुछ महंगी हो गई थी। लोगों की भलमनसाहत में भी फर्क आ गया था। पहले पुरानी-धुरानी कॉपी-किताबें यूं ही मिल जाती थी। अब लोग उसके पैसे मांगते। कहते, ‘भई हमने भी तो खरीदी है, हमें कोई मुफ्त में थोड़ी दे गया है।’ संजय की पढ़ाई ना रूके इसलिए पांच-सात दर्जा पढ़कर उसकी बहनें अपनी मॉं के साथ खेतों में काम करने लगी थी। 

 संजय के माता-पिता की एक ही इच्छा थी कि संजय पढ़-लिखकर कुछ बन जाए तो इस नरक की जिंदगी से मुक्ति मिले। साथ ही वें इस चिंता में भी घुलते जा रहे थे कि जवान होती लड़कियों को कैसे घर से बाहर किया जाए। संजय ने पढ़ाई के मामले में कभी अपने माता-पिता को निराश नहीं किया। बारहवीं पास करने के बाद तो उसने ना केवल कॉलेज में प्रवेश लिया बल्कि एसएससी, बैंक, आदि की परीक्षाओं में बैठने लगा था।एक दिन एक अच्छे घर से उसकी बहनों के लिए रिश्ता आया था। तीन भाई थे। अच्छा-खासा कमा लेते थे। एक ही साथ तीनों का ब्याह हो जाएगा। एक ही घर में तीनों चली जाएंगी। तीनों घर से बाहर हो तो गंगा स्नान हो जाएगा। ये सोचकर संजय के पिताजी इस रिश्ते को किसी भी कीमत पर हाथ से नहीं जाने देना चाहते थे। इसलिए गॉंव के सूदखोर बनिए से अच्छा-खासा कर्जा लेकर उन्होंने तीनों लड़कियों का ब्याह कर दिया।

    इधर संजय की मेहनत रंग लाई। कॉलेज पूरा होते-होते उसका चयन लोवर डिवीजन क्लर्क के लिए हो गया था। मॉं-बाप का सपना पूरा हुआ। नौकरी लगने के एक साल के भीतर ही पूनम को पसंद कर लिया गया। संजय अभी शादी नहीं करना चाहता था। वह चाहता था कि पहले सारा कर्जा चुका दिया जाए। उसके बाद वह शादी करे। परंतु मॉं-बाप की जिद के आगे उसे झुकना पड़ा। उसकी शादी में भी कर्जा लिया गया। कुछ समय बाद वह पूनम को भी अपने साथ महानगर में ले आया। दोनों किराए के एक कमरे में अपनी गृहस्थी की गाड़ी घसीटने लगे। संजय अपनी आधी तनख्वाह कर्जा चुकाने के लिए देता। आधे में खुद भी गुजारा करता और कुछ माता-पिता को भी भेजता। संजय के अनपढ़ पिता का सूदखोर बनिए ने खूब फायदा उठाया था। इतना कि पूरा कर्जा चुकाते-चुकाते छह-सात साल बीत गए।

    जब तक वह कर्जे से उभरा तब तक उसके अपने बच्चों के खर्चें शुरु हो गए थे। उसके दो बच्चे थे। उनकी स्कूल की फीस, कॉपी-किताबें, घर का किराया, महानगर के अन्य खर्चें, बहनों के खर्चें, माता-पिता के खर्चे, आदि ने उसकी कमर तोड़ दी थी। आखिर एक एलडीसी की तनख्वाह होती ही कितनी है। ऊपर से विभाग भी ऐसा जिसमें कोई ऊपरी आय भी नहीं। पूनम आठवीं पास जरूर थी लेकिन वह एक कुशल गृहणी थी। वह सब कुछ व्यवस्थित करके चलती थी। इसलिए संजय की गृहस्थी की गाड़ी ठीक-ठाक ढंग से खींच रही थी।

    बारहवें साल में जाकर उसे प्रमोशन मिला था। अब वह हैड क्लर्क था। खर्चें भी स्थिर हो चले थे। कुछ तनख्वाह भी बढ़ गई थी। उसका जीवन स्तर भी कुछ ऊपर उठा था। उसके कई साथियों ने दिल्ली में अपने घर ले लिए थे। उनको देखकर वह भी एक अदद घर का सपना देखने लगा था। लेकिन जब भी किसी प्रापर्टी डीलर से बात करता तो मन मसोस कर रह जाता। जमीन तो बहुत दूर की बात थी। दो कमरों का फ्लैट भी उसकी सीमा से बाहर था। 

   अनुराग ने उसके ऑफिस में चार साल पहले ही एलडीसी के पद पर ज्वाइन किया था। उम्र पच्चीस साल और अविवाहित। वह आज की पीढ़ी का लड़का था, प्लानिंग के साथ चलने वाला। वह चाहता था कि पहले अच्छी नौकरी हो, फिर एक ठीक-ठाक सा मकान और गाड़ी हो, उसके बाद शादी की जाए। इसलिए नौकरी लगने के चार साल बाद भी उसने शादी नहीं की। आज उसने दो कमरों का एक फ्लैट ले लिया। जब उसने ऑफिस में मिठाई बांटी तो जैसे संजय की दुखती रग पर हाथ धर दिया। उसने अनुराग को तो गले लगाकर बधाई दी थी, लेकिन अपनी विवशता पर उसे क्रोध आया था जो बाद में निराशा में बदल गया। इसी निराशा में डूबा वह घर आया था। लेकिन पूनम ने मीना का प्रसंग छेड़ उसका मन बदल दिया था।

    चाय-नाश्ते के बाद दोनों सब्जी लेने बाजार गए। सब्जी लेते समय अचानक ही संजय की नज़र ‘भारद्वाज बिल्डर्स’ के बोर्ड पर पड़ी। उसने सब्जी का थैला पूनम को पकड़ाते हुए कहा, ‘‘तुम सब्जी लेके घर जाओं, मैं थोड़ी देर में आता हूँ।’’

   ‘‘अरे अचानक क्या हुआ? इधर कहॉं चल दिए।’’ पूनम ने चौंकते हुए पूछा। संजय बिना कोई जवाब दिए भारद्वाज बिल्डर्स की ओर बढ़ गया।

   भारद्वाज बिल्डर्स के इस ऑफिस के सामने से संजय बहुत बार गुजरा था। लेकिन आज पहली बार उसने अंदर कदम रखा था। एक हॉलनुमा कमरा जो पूरी तरह से एलईडी लाइटों से चकाचौंध था। दीवारों के सहारे भारी-भरकम दो सोफा सेट लगे लगे थे। सोफों पर तीन-चार लड़के बैठे थे, जिनके गले में लाल डोरी से बंधा आईकार्ड लटक रहा था। डोरी और आई कार्ड पर भारद्वाज बिल्डर्स लिखा हुआ था। देखने से ही पता चल जाता था कि वे मार्केटिंग एक्जीक्यूटिव थे जिनका काम था ग्राहक को प्रोपर्टी, फ्लैट, फ्लोर, आदि दिखाना और समझाना। कमरे के बीचोंबीच कुछ फासलें पर दो कांच की गोल टेबल लगी थी। जिसके चारों ओर तीन घूमने वाली गद्दीदार कुर्सियां थी। एक टेबल पर एक दम्पत्ति बैठकर एक्जीक्यूटिव से कुछ समझ रहे थे। रिसेप्शन पर एक खूबसूरत लड़की बैठी हुई थी। उसके पास एक एक्जीक्यूटिव खड़ा कुछ चुहलबाजी कर रहा था। लड़की हौले-हौले मुस्कुरा रही थी। उसकी मुस्कान उसे और अधिक खूबसूरत बना रही थी। सभी लड़कों और उस लड़की ने नीली पेण्ट और आसमानी रंग की कमीज डाली हुई थी। संजय को देखते ही लड़की चहकी थी, ‘‘वेलकम सर, मैं आपकी क्या मदद कर सकती हूँ?'’

    संजय ने रिसेप्शन की ओर कदम बढ़ा दिए थे। वह लड़का उस लड़की के पास से हटकर सोफे पर जाकर बैठ गया था। संजय ने महसूस किया कि लड़के को उसका आना अच्छा नहीं लगा।

    ‘‘आप क्या सर्च कर रहे है सर?’’ लड़की ने फिर पूछा।

   ‘‘मैं एक फ्लैट देख रहा हूँ।’’ संजय ने बताया।

   ‘‘हम आपकी पूरी सहायता करेंगे सर। आपका बजट कितना है?’’ लड़की का अगला सवाल था। अभी भी उसके चेहरे पर मुस्कान बनी हुई थी। बीच-बीच में वह कनखियों से उस लड़के को भी देखे जा रही थी। 

‘‘पैंतालीस-पचास के आसपास है मेरा बजट।’’

‘‘क्या कुछ लोन भी लेंगे सर?’’

 ‘‘हॉं।’’

 ‘‘कितना?’’

 ‘‘ज्यादा से ज्यादा।’’

  ‘‘लोन आपकी प्रोफाइल और प्रोपर्टी पर डिपेण्ड करता है। फिर भी हम सत्तर से अस्सी परसेण्ट लोन करवा देते है।’’

  ‘‘मतलब।’’

 ‘‘मतलब जैसे पचास लाख की प्रोपर्टी है तो पैंतीस से चालीस लाख तक लोन की हम कोशिश करेंगे। बाकि आपकी इनकम प्रोफाइल और सिबिल आदि पर डिपेण्ड करेगा।’’

 संजय ने मन ही मन कुछ हिसाब लगाया और बोला, ‘‘ठीक है मैं समझ गया। ये बताइए क्या अभी आपके पास कोई अच्छा सा टू बीएचके है?’’

 ‘‘यस सर, इस समय हमारे दो-तीन प्रोजेक्ट चल रहे हैं। आप कल सुबह दस बजे से शाम छह बजे तक कभी भी आ जाइए। हमारे एक्जीक्यूटिव आपको प्रोपर्टी दिखा देंगे।’’

 ‘‘ये तो मेरा ऑफिशियल टाइम है। मैं ऐसा करता हूँ कि सण्डे को आता हूँ।’’ संजय ने कहा।

‘‘ठीक है सर मैं सण्डे को आपका अपॉइण्टमेंट फिक्स कर देती हूँ। आप यह विजिटर फार्म भर दिजिए प्लीज।’’ लड़की के चेहरे पर अभी भी मुस्कान बनी हुई थी। संजय ने उसके हाथ से फार्म ले लिया। फार्म में वही सब जानकारियां देनी थी जो वह लड़की लगभग पूछ चुकी थी। फार्म भरकर उसने लड़की को पकड़ा दिया और कुर्सी से उठ गया। अभी वह दरवाजे पर पहुँचा ही था कि उसने मुड़कर एक बार फिर उस आलीशान ऑफिस को देखा। उसकी नज़र एक बार फिर रिसेप्शन पर बैठी लड़की की ओर उठ गई। वह लड़का एक बार फिर लड़की के पास पहुँच चुका था। संजय दरवाजे को धकेल कर बाहर निकल गया।

    रविवार! छुटृटी का दिन। इस दिन संजय खूब देर तक सोता था। उसे उठाते-उठाते पूनम तंग आ जाती थी। चाय-नाश्ता बिस्तर में लेने के बाद ही लगभग दस-ग्यारह बजे वह बिस्तर छोड़ता था। अभी नौ ही बजे थे कि उसका मोबाइल घनघना उठा। एक दो बार तो उसने नजर अंदाज किया परंतु जब मोबाइल तीसरी बार घनघनाया तो उसे उठाना ही पड़ा। उधर से किसी लड़की की बहुत ही मीठी आवाज आई थी - ‘‘क्या मेरी बात मिस्टर संजय सिंह से हो रही है?’’

‘‘हॉं मैं संजय सिंह बोल रहा हूॅं, आप कौन?’’

"हैलो सर, मैं भारद्वाज बिल्डर्स से बोल रही हूँ। आपने तीन-चार दिन पहले हमारे ऑफिस में विजिट की थी।’’

संजय की नींद एक पल में ही काफूर हो गई। वह तुरंत ही उठकर बैठ गया और हड़बड़ाते हुए बोला, ‘‘जी, जी कहिए।’’

 ‘‘सर हमारे एक्जीक्यूटिव आपका इंतजार कर रहे हैं। आप कब तक आयेंगे?’’

 ‘‘मैं एक घण्टे बाद आपके ऑफिस में आता हूँ।’’ कहकर संजय ने फोन काट दिया।

दिन के लगभग चार बजे थे। संजय और पूनम भारद्वाज बिल्डर्स के ऑफिस में बैठे थे। वे एक एक्जीक्यूटिव के साथ कुछ फ्लैट्स देख आए थे। अब उनकी मीटिंग भारद्वाज बिल्डर्स के मालिक राजेन्द्र भारद्वाज से होनी थी। लगभग आधे घण्टे की प्रतीक्षा के बाद उन्हें अंदर वाले कमरे में भेज दिया गया। रिसेप्शन के बगल में ही दरवाजा था। अब वे एक छोटे से कमरे में राजेन्द्र भारद्वाज के सामने बैठे थे। भारद्वाज बिल्डर्स के ऑफिस का हॉल जितना भव्य था, राजेन्द्र भारद्वाज का कमरा उससे भी कही अधिक भव्य था। बड़ी से चमचमाती गहरे भूरे रंग की गोल मेज। मेज के सामने चार गद्दीदार कुर्सियां। दीवार के साथ सोफा और दीवान। दीवार पर कई प्रकार के सर्टिफिकेट लगे थे। एक ओर दो-चार ट्राफियां रखी थी। उनके ठीक ऊपर दीवार पर एसी लगा था जिसने कमरे को शिमला-मनाली बना रखा था। भारद्वाज की उम्र पचासेक रही होगी। लालिमा लिए हुए एकदम गोरा गट्ट चेहरा। सिर का एक-एक बाल काला। वह चालीस से ज्यादा का नहीं दिखता था। अपनी भूरी आँखों को नचाते हुए बोला, ‘‘माफी चाहता हूँ सिंह साहब आपको थोड़ी देर इंतजार करना पड़ा। कुछ जरूरी काम कर रहा था।’’ उसका स्वर चाशनी में भीगा हुआ था। हालांकि संजय को वहां ऐसा कुछ भी खास नजर नहीं आया जिसके कारण उन्हें आधे घण्टे से अधिक की प्रतीक्षा करनी पड़ी। वह बोला, ‘‘कोई बात नहीं कामकाज में इतना तो चलता ही है।’’

    ‘‘तो बताइए बहन जी। कोई फ्लैट पसंद आया आपको?’’ इस बार वह पूनम से मुखातिब था। पूनम केवल मुस्कुरा कर रह गई और संजय की ओर देखने लगी। भारद्वाज समझ गया। वह तुरंत ही संजय से मुखातिब हुआ।

     ‘‘जी राजीव नगर में मैंन रोड़ के पीछे वाली गली में एल टाइप का जो फ्लैट दिखाया था वह हमें ठीक लग रहा है।’’

  ‘‘वाह साहब क्या पारखी नजर है आपकी। फिर वो प्रोपर्टी भी ऐसी है कि जो भी देखता है तुरंत पसंद कर लेता है। हमने उसमें सोलह यूनिट बनाए है। दो-तीन यूनिट को छोड़कर सारी यूनिट बिक गई। इसलिए आप लोग जल्दी करें। मैं तो कहता हूँ कि आजकल में बुक कर लिजिए। वर्ना अच्छी चीज हाथ से निकल जाएगी।’’

    ‘‘जी ठीक है हमें आगे का प्रोसेस समझाइए। हम फ्लैट कैसे बुक कर सकते हैं?’’ 

     ‘‘देखिए मकान बार-बार नहीं लिया जाता। इसलिए अभी तो आप घर जाकर आपस में सलाह-मशविरा कर लिजिए। अगर आपको ठीक जंचता है तो इक्यावन हजार टोकन मनी या बुकिंग अमाउण्ट देकर अपना फ्लैट बुक कर लिजिए।’’ भारद्वाज ने उन्हें सलाह दी।

     ‘‘हम्म… इसके बाद।’’ संजय ने पूछा।

     ‘‘टोकन मनी के बाद हम आपको सात दिन का टाइम देंगे। सात दिन में आप फ्लैट की पूरी कीमत का दस परसेण्ट बयाना देंगे। क्योंकि आपका लोन भी करवाना है तो बयाने के बाद हम आपका केस लोन के लिए हमारे ऐजेण्ट के पास भेज देंगे। लोन का पैसा आने के बाद रजिस्ट्री होगी। रजिस्ट्री से पूर्व आपको बाकि सारा भुगतान करना होगा। रजिस्ट्री, लोन ऐजेण्ट के खर्चें और दूसरे छोटे-मोटे खर्चें आपको ही करने होंगे।’’

    ‘‘चलिए ठीक है आप अपनी अंतिम डील बताइए ताकि हमें फैसला लेने में आसानी हो।’’

    ‘‘हमने उन फ्लैट्स की कीमत पचपन लाख रखी है।’’ भारद्वाज इस मामले में पूरा घाघ था। वह आँखों ही आँखों में संजय की मनस्थिति भांप रहा था। वह समझ गया था कि फ्लैट दोनों को पसंद आ गया है।

    ‘‘नहीं भारद्वाज साहब पचपन तो बहुत ज्यादा है। इतनी मेरी गुंजाइश नहीं।’’

    ‘‘अरे सिंह साहब क्या बात करते हैं। मैन रोड़ की प्रोपर्टी ही समझिए। पचास मीटर दूर मैन रोड़ है, बाहर निकलते ही मार्केट, महज तीन सौ मीटर की दूरी पर मैट्रो स्टेशन। कनेक्टिविटी की कोई प्रॉब्लम नहीं। मीठा पानी दोनों टाइम और सबसे बड़ी बात राजीव नगर इस एरिया की सबसे पॉश कॉलोनी है। इसलिए पचपन लाख ज्यादा नहीं है।’’ भारद्वाज उन्हें सुविधाएं गिनाता जाता था और समझाता जाता था। अंत में बावन लाख पर डील तय हो गई। दो दिन बाद संजय ने इक्यावन हजार टोकन मनी देकर अपना फ्लैट बुक कर लिया था। उसके पास दो-तीन लाख रूपये की सेविंग थी। कुछ पत्नी के गहने गिरवी रखे। कुछ यार-दोस्तों से उधार लिया और किसी तरह बयाने की रकम का जुगाड़ कर लिया।

   संजय की खुशी का ठिकाना नहीं था। उसका बरसों का सपना पूरा होने जा रहा था। अब दिल्ली में उसका भी अपना घर होगा। पूनम भी बहुत खुश थी। अगले रविवार संजय अपने दोनों बच्चों को वह फ्लैट दिखाने लाया था जो बहुत जल्द उनका होने वाला था। चार सौ गज के जमीन के उस टुकड़े को चार बराबर भागों में बांटा गया था। नीचे का पूरा एरिया गाड़ी-मोटरों की पार्किंग के लिए छोड़ दिया गया था। पार्किंग एरिया के ऊपर चार मंजिला इमारत खड़ी थी। हर मंजिल पर आमने-सामने चार फ्लैट बनाए गए थे। बीच में सीढियां और लिफ्ट थी। दो फ्लैट सीढ़ियों के साथ थे। और दो फ्लैट दूसरी ओर लिफ्ट के साथ। कुछ फ्लैट्स में लोगों ने रहना शुरु कर दिया था। कुछ फ्लैट्स का काम चल ही रहा था। 

    संजय ने एक्जीक्यूटिव को पहले ही बुला लिया था। वह अपने दोनों बच्चों को फ्लैट दिखा रहा था। दोनों बच्चे भी बहुत खुश थे। पूनम ने मन ही मन पूरा घर सजा डाला था। कहॉं क्या और कैसे रखना है, वह उसकी योजना बना रही थी। बच्चे इस बात पर चर्चा कर रहे थे कि उनके कमरे में क्या-क्या सुविधाएं होनी चाहिए। तभी उनके सामने के फ्लैट का दरवाजा खुला और एक पचासेक साल का अधेड़ बाहर आया। उसके सिर के बाल खिचड़ी थे। पीछे की ओर एक चोटी बंधी थी। मुॅंह से पता चलता था कि वह पान मसाला और चूना-खैनी वाला इंसान था। उसने आकर नमस्ते की।

   ‘‘अच्छा तो आप लोग आ रहे हैं इस फ्लैट में।’’ उसने जानकारी लेना चाहा।

    ‘‘जी।’’ संजय ने हाथ जोड़ते हुए नमस्ते की और उसकी बात का जवाब दिया।

   ‘‘चलिए अच्छा है हमें भी आपकी कम्पनी मिल जाएगी। भारद्वाज जी बता रहे थे कि कोई सिंह साहब है राजस्थान के जो आपके पड़ौस में रहने आ रहे है।’’

     ‘‘जी मैं ही हूँ। मेरा नाम संजय सिंह है और मैं राजस्थान से हूँ।’’

    ‘‘मेरा नाम महेन्द्र नाथ शुक्ला, उत्तर प्रदेश से।’’

    इसके बाद दोनों में काफी देर तक इधर-उधर की बातें होती रही। शुक्ला जी ने एक कप चाय का निवेदन किया। जिसे औपचारिकतावश मना नहीं किया जा सकता था।

     ‘‘एक अच्छा पड़ोस मिल जाए तो बहुत अच्छा रहता है। शुक्ला चाय का कप संजय के हाथों में थमाता हुआ बोला।

       ‘‘सही कह रहे हैं आप।’’ संजय ने जवाब दिया था। दूसरी ओर पूनम और शुक्ला जी की पत्नी बहनापा बढ़ा रही थी। उनके बच्चे भी आपस में मेलजोल बढ़ाने में लगे थे।

     "अच्छा आप तो राजस्थान से है ना।’’

    ‘‘जी।’’

    ‘‘राजपूत...?’’

    ‘‘जी नहीं।’’

    ‘‘अच्छा-अच्छा, तो जाट हैं?’’

   ‘‘जी नहीं, मैं राजस्थान के आदिवासी समुदाय से हूँ।’’

     शुक्ला जी ने सुनकर अपनी पत्नी की ओर देखा था। पत्नी ने शुक्ला जी की ओर। संजय गांव से निकला था। तुरंत ही दोनों के मनोभाव समझ गया। चाय खत्म हो गई थी। संजय ने विदा ली।

    ‘‘अब तो आपसे मुलाकात होती ही रहेगी। एक-दो महीने में हम भी यहॉं शिफ्ट कर जाएँगे।’’ पूनम ने शुक्ला जी की पत्नी की ओर हाथ जोड़कर कहा।

    संजय और पूनम दोनों ही बहुत खुष थे। आखिर हो भी क्यों ना? एक आदमी के जीवन का आधार है रोटी, कपड़ा और मकान। रोटी और कपड़े की जरूरत तो पूरी हो रही थी। कमी थी तो एक अदद मकान की। पन्द्रह साल से ज्यादा हो गए थे। इस शहर में किराए के मकानों में भटकते हुए। हर दो-तीन साल में मकान बदलना विवशता होती। मकान मालिक की मर्जी चलती। पिछला मकान मालिक तो बहुत ही चालाक था। उसने अंदर ही अंदर ऐसी फिटिंग करवा रखी थी कि उसके बिजली का बिल संजय के बिल में जुड़कर आता था। संजय परेशान रहता। एक फ्रीज, दो पंखें ही तो चलते हैं। ये तो पहले भी चलते थे। परंतु कभी भी इतना बिल नहीं आता था। फिर एक दिन मकान मालिक की चालाकी पकड़ी गई। उसने अगले दिन ही मकान खाली कर दिया था। अब इन सब झंझटों से मुक्ति मिलने का समय आ गया था। अब प्रतीक्षा थी बस लोन की। लोन आते ही घर उनका। जैसे-जैसे दिन बीत रहे थे। वैसे-वैसे उनकी बेचैनी बढ़ती जा रही थी। संजय हर दूसरे-तीसरे दिन भारद्वाज और लोन ऐजेण्ट गुप्ता से बात कर लेता था।

    उस दिन संजय के मोबाइल पर महेन्द्र भारद्वाज का नम्बर चमका था। वह बहुत खुशी के साथ चहका था।

     ‘‘हैलो!’’

   ‘‘संजय जी भारद्वाज बोल रहा हूँ। आपके लिए खबर अच्छी नहीं है। आपका लोन पास नहीं हुआ।’’

    ‘‘लेकिन...।’’ संजय कुछ कह पाता उससे पहले ही पुनः भारद्वाज का स्वर उभरा था, ‘‘आपका एमाउण्ट ज्यादा था। इसलिए वह स्वीकृत नहीं हो सका।’’

     ‘‘लेकिन कल ही तो मैंने गुप्ता जी से बात की थी, वो तो कह रहे थे कि कोई समस्या नहीं है। वो तो एक दो दिन में अप्रूव्ल मिलने की बात कर रहे थे।’’

     ‘‘देखिए संजय जी यह तो लोन देने वाले बैंक का मामला है, इसमें ना मैं कुछ कर सकता हूँ और ना गुप्ता जी। आप चाहे तो कोई दूसरी सस्ती प्रोपर्टी देख सकते हैं और चाहे तो अपना बयाना वापस ले सकते हैं। दोनों ऑप्शन है आपके पास।’’ कहकर भारद्वाज ने फोन काट दिया।

    संजय कुर्सी पर निढाल हो गया। ऐसा नहीं था कि उसका सपना चकनाचूर हो गया था। वह चाहता तो दूसरा कोई फ्लैट देख सकता था। परंतु उस फ्लैट के साथ उसने और उसके परिवार ने बहुत सी कल्पनाएं कर ली थी। वह उनके सपनों का घर बन चुका था। वह शाम को अपना बयाना लेने पूनम के साथ भारद्वाज बिल्डर्स के ऑफिस के लिए निकला। अचानक संजय के कदम उस और मुड़ गए जिधर उनके सपनों का घर था। पूनम ने आश्चर्य से पूछा था, ‘‘इधर कहॉं चल दिए?’’

    ‘‘अंतिम बार अपने सपनों के महल को देखना चाहता हूँ, जिसे पूरी कोशिश के बाद भी मैं खरीद नहीं पाया।’’

    दोनों फ्लैट पर पहुँच चुके थे। पार्किंग एरिया में ही दो श्रमिक परिवार रहते थे। जिनके पास खाली या बिकाऊ फ्लैट्स की चाबी होती थी। संजय ने उनसे चाबी मांगी। संजय चूंकि दो-तीन बार वहां आ जा चुका था। इसलिए श्रमिक उसे पहचानने लगे थे।

    ‘‘साहब आप, लेकिन...?’’ उस श्रमिक ने आश्चर्य व्यक्त किया था।

    ‘‘लेकिन क्या...?’’

    ‘‘साहब यहॉं रहने वालें सभी लोग तो कह रहे थे कि वो आपको यहॉं मकान नहीं लेने देंगे। आपके फ्लैट के सामने वाले शुक्ला जी ने ही तो सबको इकट्ठा किया था।’’

    ‘‘साफ-साफ बताओं तुम कहना क्या चाहते हो?’’ संजय के स्वर में अधीरता और बेचैनी साफ झलक रही थी।

    ‘‘साहब शुक्ला जी कह रहे थे कि ये जंगली-आदिवासी थोड़ा पढ़-लिख क्या गए अपने आपको राजा-महाराजा समझने लगे हैं। आरक्षण नहीं होता तो किसी जंगल में तीतर मार रहे होते। लेकिन वो अम्बेडकर इन्हें हमारे सिर पर बैठा गया। शुक्ला जी तो ये भी कह रहे थे कि अगर आप उनके सामने रहने आ गए तो वे अपना फ्लैट यहॉं से बेचकर चले जाएँगे। बाकि सब लोगों ने उनकी हॉं में हॉं मिलाई थी। दो दिन पहले ही सब भारद्वाज साहब से मिलकर आए हैं।’’

    संजय ने सुना तो उसके पैंरों तले जमीन खिसक गई। आज के युग में भी ऐसी सोच। उसे उस दिन की मुलाकात याद हो आई जब उसने शुक्ला को अपनी जाति बताई थी। अचानक उसकी मुठ्ठियां भीच गई। आँखें लाल हो गई। उसने पूनम का हाथ पकड़ा और सीढ़िया चढ़ता चला गया।     

   कुछ क्षणों बाद उसने शुक्ला के दरवाजे पर दस्तक दी। शुक्ला दरवाज खोल कर बाहर आया। उसकी पत्नी भी उसके साथ थी। 

‘‘अरे, आप लोग! अंदर आइए ना।" शुक्ला के स्वर में चाशनी सी घुली थी।‘‘यह दिखावा रहने दिजिए शुक्ला जी।" संजय के स्वर में तल्खी थी। "यह बताइए कि हमारे यहाँ रहने से आपको क्या तकलीफ है?" 

 ‘‘मतलब...?’’ शुक्ला सकपका गया था। उसकी चोरी पकड़ी गई थी।

‘‘मतलब...मतलब ये है शुक्ला कि मेरे और मेरे सपनों के घर के बीच मत आना। वर्ना अच्छा नहीं होगा।’’ शुक्ला को चेतावनी देकर संजय ने पूनम का हाथ पकड़ा और सीढ़ियां उतरता चला गया। अब उसका रूख भारद्वाज बिल्डर्स का ऑफिस था।

कुछ दिनों बाद संजय अपने सपनों के घर में गृहप्रवेश कर रहा था। दरवाजे के साथ दीवार के सहारे एक छोटी सी मेज पर बाबा साहेब और बुद्ध की तस्वीरें लगी थी। साइड में एक कुर्सी पर फूल-मालाएं रखी थी। अतिथि दोनों तस्वीरों पर फूल अर्पित कर घर में प्रवेश कर रहे थे। ठीक सामने शुक्ला के फ्लैट का दरवाजा बंद था। दरवाजे पर एक कागज़ चस्पा था, जिस पर लिखा था, 'यह फ्लैट बिकाऊ है।'


 



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