Jay krishna Jha

Tragedy

4.3  

Jay krishna Jha

Tragedy

स्वतंत्र भारत

स्वतंत्र भारत

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मैं यूँ ही बाज़ार निकला था 

घर का कुछ सामान लाने

लाक्डाउन था और रास्ते भी सुनसान थे

बाज़ार में पहले जैसे कुछ चहल पहल भी नहीं थी

सबके चेहरे पे पहली जैसी चमक भी कहीं गुम थी

हर तरफ़ मानो सन्नाटा सा छाया था

पूछ रहे थे सब एक दूसरे को

मगर नज़रों के नज़र से 

ना जाने कहाँ से ये कोरोना आया था ।

फ़िक्र थी कि कब तक ऐसे चलेगा

यूँ ही घर में रहना

ले रहे थे सामान हम सब

कुछ दिन से लेकर महिनों तक का 

सामान लेकर तसल्ली बक्श घर तरफ़ अब जाना था

मारे ख़ुशी झूम रहा था मन मेरा

सामान मुझे मेरे ज़रूरतों का सब मिल जो गया था।

क्या था अब बस जब तक रहे ये कम्बख़्त लॉक्डाउन

आराम से है घर में रहना 

अच्छा खाना और सोना।

मेरे घर और बाज़ार के बीच में हाइवे परती है

सुना है यह दिल्ली और मुंबई को जोरती है 

कितना प्यारा सरक होगा यह

देश की राजधानी को जो आर्थिक राजधानी से जोरती है

दोनो शहर अपनी चकाचौंध में हमेशा रहते हैं 

मैंने सुना दिल्ली वाले खुद को दिलवाला भी कहते हैं

मुंबई वाले भी कहाँ कम हैं

खुद को वो भी तो खुले दिल वाला बोलते हैं।

शहर कभी सोता नहीं

और सबको पनाह देता है।

मैं यूँ ही ये सब सोच रहा था

सामने एक समुंदर सी दिखी

एक पल ऐसा लगा मानो ये क्या हुआ?

देश तो अभी एक बीमारी से जूझ रहा 

तो फिर ये क्या मैं हूँ देख रहा।

एक तूफ़ानी समंदर की लहरों सा

भीड़ था एक आ रहा।

हतप्रभ मैं भी उत्सुकतावस

मैं भी कुछ देर वही रूक गया।

पर ये क्या?

अचानक शहर कहाँ उठ है चल परा

ऐसी भीड़ मैंने पहले नहीं देखी थी

शहर को ऐसे उजरतें पहले कभी सोची नहीं थी।

ऐसा लग रहा था ये जो कतार में लोग चल रहे 

ना जाने किस शहर को हैं छोर रहे और आख़िर क्यूँ?

मुझसे रहा ना गया

मास्क नाक पे सम्भाला अच्छी तरीक़े से 

गाड़ी से उतर भीड़ की तरफ़ मैं बढ़ा

पहले उत्सुकता बस इतनी सी थी आख़िर इतनी भीड़ क्यूँ

क्या कनहि किस शहर में थी आग लगी

या 1947 वाली फिर कोई बात हुई।

कहाँ से आ रहे और कहाँ जा रहे हो?

मैंने एक से पूछा

शहर से आ रहे और अपने गाँव जा रहे बाबू

एक ने दबी ज़ुबान से कहा

मगर क्यूँ?

अभी तो बीमारी चल रही

और ये पैदल क्यू हो तुम चल परे

जाना कहाँ और मिटाने दूर है पथिक तुम्हें।

मैं भी सहसा उनसे पूछ परा।

दूर बहुत दूर

1300 KM

हाँ जी १०० किलॉमेटर से भी जादा दूर 

चल पाओगे?

चलना ही होगा

पहुँच पाओगे?

भगवान की मर्ज़ी

फिर चले क्यूँ?

और रास्ता कुछ बचा नहीं था

पागल हो तुम लोग?

भूखे हैं हम

सरकार तो खिला रही?

झूठ तुमको टीवी पे दिखा रही

ऐसा नहीं है?

सामने तेरे गवाह में भीड़ खड़ी है।

समाज भी कोई चीज़ होती है उन्होंने भी नहीं रोका क्या ?

मुस्कराता एक अधेर युवक मुझसे पूछा

तुमने लगता कभी ग़रीबी नहीं देखी क्या?

जवाब नहीं दे सका मैं उसके इस बात का

हट ऐसे बात नहीं करते साहब से एक बुजुर्ग ने

उस युवक से कहा मुझसे माफ़ी माँगी और वो आगे बढ़ चला।

मैं पत्थर की तरह बस निहार रहा था

अंदर कुछ आग लगी थी उसको खुद से मैं सुलगा रहा था।

पता नहीं मुझे क्या हुआ

कदम दौड़ लगाने लग गए

कुछ खा लो काका मैंने उस बुजुर्ग से कहा

हंसते हुए उसने कहा अभी बहुत चलना है

मैं बच्चे की तरह उससे ज़िद करने लगा

पता नहीं मुझे क्या हो गया था 

एक ऊर्जा अंदर भर गयी थी

दौड़ क़े गाड़ी के पास गया और तेज चलाते मैं उनके पास

वो मना करते रहे मैं भी अनसुनी करता रहा।

बस एक रट लगा रहा था मैं

खा लो बाबा, कुछ खा लो बाबा।

कुछ फल निकाले और उनको दिया

एक लिया उन्होंने और बाँकी अपने अग़ल बग़ल बाँट दिया।

ओर ये क्या?

अभी तो बहुतों के हाथ ख़ाली थे

मैंने अपना झोला निकला और सबको कुछ देते गया।

कम सामान था मेरे पास पर हाथ बहुत थे 

नाराज़ सा मन मेरा मुझे कोस रहा था

सहसा मेरे अंदर से आवाज़ आई

की चावल आटा से भी तो पेट भरा जा सकता है सबका नहीं तो कुछ का तो पेट भरा जा सकता है।

मैंने झट से चावल का पैकेट निकाला और कहा चावल पका लो, एक युवक मारे ख़ुशी के लपक परा।

मुझे पता नही क्या हो गया था

ऐसा लग रहा था की ये मेरे अपने हैं और ये ऐसे क्यू हैं।

क्यू चल परे हैं इत्ति दूर।

क्या ये पहुँच पाएँगे?

इन्होंने ही तो शहर के शहर बनाए हैं 

इन्होंने ही तो हमारे दूध सुबह सुबह पहुँचाए हैं

अख़बार भी सुबह यही लाते

ये राशन जो मैं लाता हूँ 

ये भी तो हम तक यही पहुँचाते हैं 

फिर शहर ने इनको लावारिस की तरह क्यूँ छोड़ दिया

सहसा मुझे कटोरे में भात देने आया युवक -लो भैय्या पहले आप खाओ

और मैं अपने आँसू ना रोक सका

कितना बार दिल है इनका

भूखे हैं फिर भी पहले मुझे खिला रहे

मैं भी कोरोना की परवाह किए बेग़ैर उनके साथ खाने लगा

सच कहूँ इतना आनंद पहले खाने का पहले ना मिला था।

मगर मैं चुप था एक पत्थर की तरह और आँसू थी आँखो में ।

कुछ कुछ बोल रहे थे वो मुझसे।

मगर मेरे अंदर सवाल चल रहा था

 इनकी सरकार नहीं?

क्या समाज इनकी नहीं

आज़ाद हम हो गए

पर ग़ुलामी आजतक ग़रीबी से है

आज़ाद हम कब होंगे 

कहने को मंगल तक हम पहुँच गए

धरती पे जो अपने हैं उनके घर तक कब पहुँचेंगे?

सहसा वो ग़रीबी नहीं देखी क्या आपने वाला युवक मेरे पास आया आँखों में उसके क्या चमक थी।

कुछ कहा नहीं मुझसे बस देखता रहा वो मुझे और मैं उसे।

समय था निकल गया ।

वो आगे बढ़े मैं उन्हें देखता रहा- मानो मेरा ही परिवार हों 

टूट गया था उस पल मैं।

पर सवाल आज भी है।

क्या मुल्क आज़ाद है?

क्या हम आज़ाद हैं?

आज़ादी की जश्न अधूरी है

जब तक भारत भूखी है!



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