Chandra Prabha

Inspirational

4.8  

Chandra Prabha

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वह फूलोंवाली साड़ी

वह फूलोंवाली साड़ी

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 अस्पताल से बहन को देखकर आई, मन बड़ा खि‌‌‌‌‌‌‌‌न्न था, उदास था।उन्हें देखने गई थी, पर यह नहीं पता था कि इतनी खराब हालत है।मुझे देखकर न तो आँखों में पहचान उभरी, न चहेरे पर हँसी आई, ऐसे ही शून्य में ताकती रहीं, किसी बात का कोई जवाब नहीं।अपने से उठ बैठ नहीं सकतीं, दूसरों के सहारे से सब काम हो रहाथा। खाना भी खा नहीं सकती थीं। दाल का पानी, या सूप दिया जारहा था, पर वह भी पी नहीं पाती थीं।

उनके बदन पर नई नाईटी थी, यह तो वह नहीं थी, जो मैं दे गईथी। उनके पास बैठी सेवा करने वाली से पूछा, "यह क्या नई नाईटीबाज़ार से खरीदी है ?"

वह बोली, "नई सिलवाई है। थान से कपड़ा लेकर बुटीक से सिलवाई है।" 

वह अपने ही बताने लगी कि कैसे उसकी छोटी लड़की ने इंटरपास करके फैशन डिज़ाईनिंग का कोर्स किया है। अब एक बुटीकमें काम कर रही है। वहीं उसी बुटीक में कपड़ा मिलता है, वहीं सिल भी देते हैं।

पूछा, "सिलाई का कितना दिया ?" वह बोली कि "पता नहीं"।

फिर अपने आप ही बताने लगी कि पाँच हज़ार में छह नाईटी बनवाई हैं। पूरी लम्बाई रखी है और घेर पूरा रखा है।

"कितने रुपये मीटर कपड़ा लिया ?" 

"नहीं पता।"

उसने अपने आप ही फिर बताया, "इकट्ठा पेमैंट किया है, अलग-अलग नहीं पता।"

मैंने बात आगे नहीं बढ़ाई। नाईटी पहनने वाली सुख-दुख बताने से दूर जा चुकी थीं। शून्य में देखती उनकी आँखें पता नहीं क्या कहना चाह रही थीं। हाथ-पैर मुरझाए पड़े थे। मुँह में वाणी नहीं थी। ब्रेन मेंस्ट्रोक हुआ था, आवाज चली गई थी।

याद आया मुझे कि वे कितनी वाचाल थीं। बचपन में मैं इन्हीं के पीछे दुबकी रहती थी। मेरी कोई सहेली भी मिलने आ जाती तो मैं सोचती क्या बात करुँ, और बहन को ही उसके पास बैठा देती थी।वे हँसती थी कि 'क्लासफेलो तेरी है, बात मैं करुँ।'

उन्हें हर किसी से बात करना अच्छा लगता था। रोज ही फोन करती थीं। एक दिन फोन नहीं हुआ तो कहती थीं कि' अरसा हो गया बात किये बिना'। सबका हालचाल उन्हीं से मालूम होता रहताथा।

दिल की उदार थीं। हर किसी को बर्थ-डे का उपहार, शादी की वर्षगाँठ का उपहार देती रहती थीं और वह भी बढ़िया-से-बढ़िया।कोई मौका नहीं चूकती थीं।

     उनके पास सब मिलने आते रहते थे। सबका खुले दिल से स्वागत करती थीं। कोई ही दिन जाता हो, जब उन्होंने अकेले खाना खाया हो। कोई-न-कोई मेहमान बना ही रहता था। उनके हाथ की रसोई सबको पसन्द आती थी।

      एक बार मैं उनके लिए एक बढ़िया साड़ी ले गई। बड़ी ख़ूबसूरत नए डिज़ाईन की साड़ी थी। मेरी बेटी बंगलौर से लाई थी। सुन्दर सिल्क की साड़ी पर अच्छे-अच्छे सुन्दर फूल नए डिज़ाईन के इस तरह चित्रित हुए थे, कि वह साड़ी डिज़ाईनर साड़ी को भी मात देतीथी। एक बार खोलकर देख लो तो निगाह नहीं हटती थी।

     मेरी बेटी ने वह साड़ी मुझे दी थी कि, "इसे आप लो, सब पुरानी साड़ी पहनती रहती हो।" मेरे मना करने पर भी वह साड़ी मेरे पास छोड़ गई।

      साड़ी मेरे पास रखी रही। पर में पहन न पाई। लगा कि कोई अवसर इसके लायक हो तो पहनूँ। इसी तरह साड़ी रखी रह गई।

     एक बार बहन से मिलने गई तो सोचा, यह साड़ी उन्हें दिखा दूँ, वे नये कपड़े, नयी साड़ी की शौकीन हैं। उनका एक ही शौक है कि अच्छे से अच्छा कपड़ा पहनना।

       उनको सजने-धजने का भी शौक था। कलफ लगी कड़कदार साड़ी पहनती थीं। चटक शोख़ रंगों की खिलते रंग की साड़ियाँ पसन्द थीं। सोचा यह साड़ी उन्हें दिखा दूँ, पसन्द करेंगी तो दे आऊँगी।

        उन्हें मैंने साड़ी दिखाई तो बहुत पसन्द आई। बोलीं कि "एकदम नये डिज़ाईन की सुन्दर साड़ी है, ऐसी मैंने आजतक नहीं देखी"।

मैंने कहा, "आप ही रख लो।"

     वह झिझकते, हिचकिचाते मना करती रहीं, पर वह साड़ी मैंने उनके पास छोड़ दी। कहा, "नहीं, आप ही पहनोगी तो मुझे खुशी होगी। बिटिया फिर जायेगी बंगलौर तो और ले आयेगी। आपका तो कहीं जाना, निकलना होता नहीं है। आखिर वे मान गईं। मैं भी चली आई।

     घटना को बहुत दिन बीत गए। मैं भी भुला चुकी थी। फिर एकबार मिलना हुआ तो मैंने यूँ ही पूछ लिया, "वह साड़ी आपने पहनी ?"

"कौन-सी साड़ी ?"

"वही बंगलौर वाली, जो आपको पसन्द आई थी।"

"ओह, वो साड़ी"।

'हाँ, तो आपने निकाली उसे'।

वे चुप रह गईं एक बार को। फिर उन्होंने बताया कि "भाभी जी आई थीं। उनकी शादी की वर्षगाँठ आने वाली थी। मेरे से मिलीं तो मैं उन्हें वर्षगाँठ पर कुछ देना चाहती थीं। मेरे पास बाज़ार जाने का मौका नहीं था। तुम्हें पता है कि वैसे भी मैं बाज़ार नहीं के बराबर जाती हूँ। रुपये वे लेती नहीं। बड़ी पसोपेश में थी कि क्या दूँ।तुम्हारी साड़ी रखी थी, वही हाथ आई। पहिले तो सोचा रहने दूँ।तुमने इतने प्यार से दी थी। फिर सोचा कि इन्हें भी कुछ देना ही है, खाली हाथ लौटाना ठीक नहीं। इसलिए मैंने वह साड़ी निकालकर उन्हें दिखाई। उन्हें देखते ही पसन्द आ गई। एकटक देखती रह गईं।यह भी नहीं कहा कि नहीं लूँगी। एकदम खुश होकर ले ली। और बोलीं, "साड़ी बहुत सुन्दर है। आपकी पसन्द बहुत अच्छी है। खूब पहनने के काम आएगी।"

बहन की बात सुनकर मुझे कैसा तो लगा। वह साड़ी मेरी बहुत पसन्द की थी। मेरी प्यार से शौक से उनके लिए दी हुई चीज़ उन्होंने उनको दे दी। पर क्या कहती।

मैंने कहा, "आपके जैसा उदार दिल भी कोई नहीं देखा। खुद बाज़ार जाती नहीं। अपने से कुछ खरीदती नहीं। और दूसरा कुछ दे देता है तो उसे दूसरों को बाँट देती हैं।"

वह थोड़ा म्लानमुखी होकर बोलीं, "मेरे पास कोई उपाय नहीं था।कुछ तो देना ही था।"

"उनके पास सैकड़ों साड़ियाँ हैं ? आपकी साड़ी की कद्र करेंगीं ? उनके लिए तो बस एक और साड़ी है।"

वे बोलीं, "मैंने दे तो दी, पर देकर पछताई। तुम्हारी दी हुई साड़ी मुझे नहीं देनी चाहिए थी।"

  मैंने कहा, "कोई बात नहीं। अब दे दी तो दे दी। आगे से किसी की भेंट की चीज़ जो आपको पसन्द है, दूसरे को मत दीजियेगा।"

               बात आई गई हो गई। मैं भी सोच रही थी कि मैंने भी तो बेटी की दी हुई चीज़ बहन को पकड़ा दी थी क्योंकि उन्हें मैं बेहद प्यार करती थी, पर उन्होंने भाभी जी को वह साड़ी क्यों दी ?

       मुझे वह बात याद आ गई कि एक बार भाभी जी उनके यहाँ मिलने गईं तो अपना खाने का टिफिन लेकर गईं। बहन ने बड़े चाव से उनके लिए दोपहर का खाना खुद अपने हाथों से बनाया था। भाभीजी की पसन्द की दाल, व कढ़ी चावल बनाए थे।

   भाभीजी आईं, अपना टिफिन खोल लिया। बोलीं कि "हमारा खाना साथ है"।

   बहन को बुरा लगा। बोलीं, "उसे आपने लाने की औपचारिकता की, आपके लिए कढ़ी चावल मैंने अपने हाथ से बनाए हैं। आपको कढ़ी का शौक है"।

     पर भाभीजी भी एक ही थीं। उन्होंने कढ़ी चावल चखे तक नहीं।अपना लाया टिफिन ही खाया। वे कचौरी लाई थीं। फिर टिफिन का खाना व कचौरी बहन को देने लगीं। पर बहन ने भी उनके टिफिन का खाना नहीं रखा।

     इसी पर मनमुटाव हो गया था, जो खत्म न होकर बढ़ता गया।उन्हीं को अपनी पसन्द की हुई साड़ी जो उन्हें मेरे से मिली थी, उन्होंने भाभी जी को दे डाली। खैर...

      जिसके भाग्य में हो, उसी को वह साड़ी पहननी थी। इसमें सिर क्या खपाना था। जो बात हो गई, लौटाई नहीं जा सकती।

      दिन बीत रहे थे। भाभी जी बीमार हो गईं। इतनी बीमार कि अस्पताल में पन्द्रह-बीस दिन रहना पड़ा। फिर भी महीने-महीने चैकअप केलिए जाना पड़ा, और एक दिन सुना कि उनकी असामयिक मृत्यु हो गई।

इधर बहन को स्ट्रोक हुआ, वे भी बीमार रहने लगीं। काफी इलाज कराया। परन्तु तन्दुरुस्ती वापिस नहीं आई। न पैरों में ताकत आई। व्हील चेयर पर आ गईं। सारा काम दूसरा व्यक्ति करता था।साड़ी भी पहन नहीं पाती थीं।

जो नाईटी उन्होंने जिन्दगी भर नहीं पहनी थी, रात को सोते समय भी नहीं, अब दिन भर उसी में रहती थीं। वह भी खुद नहीं पहन पातीं दूसरा ही पहनाता है।

अब तो दुबारा स्ट्रोक के बाद बीमार हो अस्पताल में पड़ी हैं। अपना भी होश नहीं है।

    उन्हें अस्पताल में दुनिया से बेखबर एक नाईटी में पड़ी देख मेरे मन में विचारों की आँधी आ गई।

     क्या स्थिर है इस दुनिया में ? एक पल में कितना कुछ बदल जाता है और हम एक बात को दिल से लगाए बैठे रहते हैं। अब वह फूलोंवाली साड़ी कहाँ हैं, नहीं पता। शायद एक बार भी नहीं पहनी गई। पसन्द सबने करी, पर कोई उसे भोग नहीं पाया।

     भाभी जी चली गईं। बहन अस्पताल में हैं और कोई भी कपड़ा अच्छा या बुरा, इस सबसे दूर हैं। पहनने वाले को अपना ही होश नहीं है।समय अपनी गति से चल रहा है। व्यर्थ है किसी चीज़ से मोह लगाना। जो सामने है, उसे तटस्थ भाव से ले लो और जाने दो।

     जिन्दगी समय का खेल है। जो सामने है वस्तु, उसका इस्तेमाल कर लेना चाहिए, फिर पता नहीं इस्तेमाल का मौका मिले या नहीं।एक सही निर्णय भी गलत हो जाता है, यदि बहुत देर करते हैं।


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