Shbhm K

Abstract

4.5  

Shbhm K

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वो वहीं खड़ा था

वो वहीं खड़ा था

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आज मैं फिर गुजरी, मेरे कॉलेज की गली से,

वही पेड़, वही चाय की टपरी, वही किराने की दुकान, वही सब कुछ, वो भी वही खड़ा हुआ था अपने दोस्तों के साथ चाय पी रहा था, अंजान की मैं भी वही से गुजर रही हूँ।

UG के 2 साल बाद आई हुई थी बनारस, यूनिवर्सिटी के कुछ कागज़ रह गए थे मेरे, वो तो PG यही से कर रहा था।

वो सड़क के दूसरे किनारे पर था और मैं अपने पापा के साथ,

बोलती तो बोलती कैसे,

आवाज़ देती टी देती कैसे,

काश वो मुझे पहचान लेता पर

वो भी कहाँ से पहचानता covid की वजह से सब लोग ने mask जो पहना हुआ था।

मैं देख रही थी उसको, हँस रहा था पता नही किस बात पर,वैसा ही हँस रहा था जैसे मेरी बचकानी बातों पर किया करता था,

जब मैं बिल्कुल उसके बराबर के, सड़क के उस पार से गुजरी, एक पल को मैं रुक गई

, पापा को बोला चप्पल ठीक कर रही हूं, अचानक वो भी हँसते हँसते रुक गया, शायद उसे भी मेरे होने का एहसास हो गया होगा, हमारी दिल की तरंग मिल गई हो, कुछ पल के लिए वो हंसते हंसते रुक सा गया, इधर उधर देखने लगा, पर फिर ध्यान को अपने दोस्तों की तरफ किया और चाय पीने लगा।

मैं भी उसकी हंसी के साथ, चप्पल ठीक करते हुए,एक और उसको देखते हुए, हँसते, खुश आगे बढ़ गई, जैसे 2 साल पहले बढ़ गईं थी।


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