घरौंदा
घरौंदा
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मेरा सपना हुआ पूरा,
जो देखा कब से करता था।
इस अनजान से शहर में
मैं सपने घर के बुनता था।
प्रिये था दूर तुमसे और,
अपनी नन्ही परी से मैं।
शहर की खाक जैसे कि,
अकेले छाना करता था।
बड़ी मुद्दत बड़ी श्रम के,
बाद घड़ी है ये आई,
है उम्मीदों की मेरी कलियां,
देखो कैसे मुस्काई।
आओ अपने हाथों से
घर के द्वार तुम खोलो।
रखा है चाबी का गुच्छा,
प्रिये हाथों में तुम ले लो।
उसके भी पहले मगर
कुछ चाहता वो करने दो
मेरे हाथों में दो अँगुली
नया छल्ला ये तुम पहनों।
करीब अब यह खुशी अपनी,
कभी ना दूर है जाए।
दुआ है तुझसे ऐ मालिक,
यह पल यूँ ही ठहर जाए।
ये पल यूँ ही ठहर जाए।