बसन्त
बसन्त
भूल गयी है पतझड़ की तन्हाई
प्रकृति बसन्त ऋतु ओढ़ कर आ गयी है
जी भर आता था
सूखा जंगल देखकर
आज झुकी गुलाब की डाली
मुझे भा गयी है
खिल गया है मन
फूलों से लदे पेड़ों को देखकर
इस दिल ने एक अनुराग पा लिया है
जब से इंद्रधनुष सी तितलियाँ
कुछ सुना गयी है
कहीं कांव -कांव, कहीं कोयल की बोली
प्यारी लगने लगी गौरेया को टोली
अपनापन मिल गया है
जो प्रकृति खेतों को हरियाली पहना गयी है
जी चाहता है
इस सुंदरता में आज समाऊं
इस प्रकृति के सीने से लग जाऊँ
पल भर में आँगन सी भीग गयी हूँ
इस बसन्त की बरसात में
प्रकृति अपनी सुंदरता कुछ यूं बरसा गयी है।