माँ
माँ
माँ... माँ... क्या है माँ ?
अरे! आ रहा हुँ माँ...
बस एक मिनट
अभी आया माँ
और वो निपट मूक बधिर
प्रतिमा सी शांत
बिना गम्भीर हुए
मुस्कुराते हुए कहती
अरे! खाना तो खा जा बेटा!
अच्छा टिफिन बना देती हुँ
ज़रा रुक तो सही...
हमारे सोने के बाद
सोनेवाली और
हमारे जागने से
पहले उठने वाली
माँ
आज बुढा गई
उसकी आँखों में
बसे स्मृतिचिन्ह
भले ही माज़ी के दरीचों से
झांकते-झांकते
धुंधले हो चले हो
लेकिन उसकी सेवा और
उसका ममत्व आज भी
उतना ही कर्मठ
उतना ही जोशीला
और दिन-प्रतिदिन बढ़ता
उसका हम पर निःस्वार्थ
प्यार-दुलार
हम बच्चों को बचपन में
माँ का असल अर्थ समझ नहीं आया
क्योंकि जब हम बच्चे थे
हममें समझ नहीं थी
आज समझ आ गई है
लेकिन माँ का अर्थ अब भी
नहीं समझ पाए
माँ एक खुली किताब सी
जिसकी कोई थाह नहीं
जिसका कोई छोर नहीं
वो क्षितिज सी है
जो है तो मग़र
कब हम उसके हो सके
उसने तो हमे कुरूपता में भी
अपने कलेजे सा
महफूज़ रखा
काश! हम माँ को
माँ ही रख पाते...