अंतर्दाह
अंतर्दाह
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मत दिखाओ रास्ता फिर से
मेरे प्रेम प्रवाह को,
मत जगाओ, पड़ी सोने दो
मेरी व्याकुल चाह को...
मत महकाओ फिर से, तुम
मेरे दिल की गलियों को,
बिखर चुकीं टूटकर जो, मेरी
खुशियों की कलियों को...
मत करो उत्तेजित फिर से
शांत पड़े अनुराग को,
रिसता था जो नस-नस से,
उस, कामुकता के राग को...
मेरे अधीर यौवन को अब
तुम, क्यों जगाने आए हो?
दब चुकी अंतर्दाह को
क्यों सुलगाने आए हो?
मैं, भूला चुकी हूँ जैसे सब
कुछ, तुम भी भूल जाओ,
मुमकिन नहीं अब मेरा लौट
पाना, तुम भी लौट जाओ।