भाषा बहता नीर
भाषा बहता नीर
आदमी से शहर बनते लोगों
कंक्रीट हो जाने से पहले
बरगद के पेड़ का समर्पण संभाल ले जाना
अड़ोसी पड़ोसी का धूल जमा सद्भाव
अब भी पोछने भर की दरकार करता है
मोहल्ले की गर्मजोशी से भरी बहसों की रौनक
उसमे घुली कुछ दरियादिली तुम्हारा ही चेहरा थी
छत के चौबारे की तन्हाई आज भी उतनी ही सुहानी है
जहा से दिखता उगता हुआ सूर्य
तुम्हें आज भी लालिमा से भरना चाहता है
ऊँची इमारतों के पीछे चाँद छिप भी जाए तो
बुढ़िया के चरखे का बिम्ब आज भी तुममें
कल्पनाओं को रचता है।
गाँव के किस्से अब भी एक पुल है
नए दौर और तुमाहरी भाषा के बीच
उनकी किताबें घरों में सजाना
मिट्टी और नदी से इश्क की कविता
भूल न जाना भीड़ से सिकुड़ते आसमान में।