चित की चाह
चित की चाह
खोया तुझमे अब मैं दीवाना सा बन गया
शमा को देख मैं भी परवाना सा बन गया
रहता था मस्त मयूर अपने ही ख्यालो में
मिजाज अब मेरा आशिकाना सा बन गया।
यह कैसे हुआ कब हुआ मुझे जवाब मिला नहीं
देखा तुझे तो लगा ऐसा कुसुम और खिला नहीं
रहता था मैं जिस सहजादी के ख्वाबो में हमेशा
अब किया दीदार तेरा तो किसी से भी गीला नहीं।
पर अब भी खुद को तन्हा सा मैं पाता हूं
महसूस करता इस प्रसून की मादक महक
हर डाल पर कोकिल का बसेरा ढूंढता हु
कभी तो आकर सुरीली चिडीयां सी चहक।
बंजर वन के इस सुनसान प्रांगण में बसेरा मेरा है
तू बन मेघ सी आकर इसको हरितमा से भर दे
कचोटती मुझे यह दूरी इंतजार बस अब तेरा है
इस बियावान में आकर तू दिल मे सुकून भर दे।
बताऊँ क्या तुझको की बिन तेरे मैं कौन हूं
तू है वन कूकरी मेरी, लफ्ज तेरे बसन्त गीत है
सुनना तुझे हर पल चाहूं तभी तो मैं मौन हूँ
अब निभा प्यार से जो इस जीवन की रीत है।
महता तेरी क्या है कोई आकर पूछे मुझसे
बिन तुझ मैं तो खाली हूँ थार ज्यों बिन आबादी
तू कब तक तड़पायेगी यूँ मुझे पूछूँ मैं तुझसे
कर हरा भरा थार को ओ सपनों की शहजादी।