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Meghana Suryawanshi

Abstract

4.5  

Meghana Suryawanshi

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इज्जत

इज्जत

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402


वो कली अंजान है बाहर की गंदी सोचवाली कुटनिती से

क्यु ना होती अगर हर बार छुपाया गया है डर की डोर से.. 

जन्म से लेके आज तक हर बात पे रोक लगाई गयी 

खुद्द के ही घर मेंं वो अंजान बनके रहती रही.. 

मन से कुछ करना चाहा तो अपनों ने भी मुह फेरा 

आझादी की सोच को पागलपण कहा गया.. 


 वो जादा तो कुछ चाहती नहीं, बस एक सवाल है हर एक को, 

 हर बात समान दि है भगवान ने, तो समाज को ऐसा अलग क्या दिख गया ?

जो औरत और आदमी के बीच खीची गयी अन्यायी लकीर. 


घर पर थी तब तक वो सुशील संस्कारी कहलाती गयी, 

बाहर पडी तब समाज के नजरों में खुपती रही.. 

वो अभी भी भ्रमित है एक सवाल से, 

सब कुछ आदमी से कम मिलता गया, तो क्या डरना, सहना,

शरम जादा करे औरत? सब कुछ समान देने मेंं कैसी शरमाई? 

हर कोई बोलता है लडका लडकी समानता के बारे मेंं. 

खुद्द की बारी हो तो, मुँह पे ताला लगा के

चाबी दुर फेंकी जाती है.. 


वो हसी तो, दाँत दिखाने लगी 

रोई तो, अब क्या शामत लेके आयी गी घर मेंं? 

सज लू तो इनकी नजरे रूक जाती है.. 

छोटी छोटी बातों पे जिद करने वाली, 

आज अकेले मेंं रोना सिख गयी.. 

घर से बाहर निकलू तो, लोगों की गंदी निगाहे पडती है 

अब उनको कौन समझाए? लडकी हूँ खिलोना नही. 

लोगों की नजर हमारी छाती पे होती है, 

और उनके गंदे बोल हमारे दिमाग मेंं.. 


 क्या लडकी का चरित्र उसके कपडे या चाल से नापा जायेगा ? 

क्या हर बार लड़की को समाज के डर से पिंजरे मेंं छुपाया जायेगा ?

कब तक छुपाओगे ? कभी कभी हैवानियत घर मेंं भी जन्म लेती है ! 


एक दिन पिंजरे को तोडकर वो उड बसी

आझाद चिडीया की तरह अपने स्वप्नपूर्ती के और 

पुकार रही थी उसे वो लकीर, जिसने हात मेंं थामी थी 

उसके उज्ज्वल भविष्य की डोर.. 

पर वो अंजान थी रास्ते मेंं खडे हरामी दो पाँव वाले जानवरों से

चार पांँव वालों को क्या बदनाम करना? 


उसके पर कापे गये, वो चिल्लाती रही 

बाकी सब नजर झुकाते देखते गये..

छुपाई मेंं उसका जिस्म निछोडा गया 

और खुले मेंं उसके चरित्र पे सवाल उठाते गये.. 

उसके इज्जत से जादा राजनिती किमती है 

गंदी सोच कुछ पैसों मेंं तोलकर छुपाई गयी है.. 

कभी कभी इज्जत से जादा लडकी की जात दिखी जाती है

निची जाती की हो तो सब मुँह सिलवाके खडे रहते है..

 

बाहर बहोत शौर है और वो अकेली बैठी है किसी कोने मेंं

वो चिल्ला चिल्ला के न्याय जो मांग रही है, 

पर पाँव मेंं घर के इज्जत की दोर जो बांधी है..

घर उसका जल रहा था, बाकी सब तमाशा देख रहे थे 

जिनसे उम्मिद थी मदत की, वो हाथ सेक रहे थे.. 


कमेंंट मेंं हर कोई उठाता है आवाज अत्याचार के खिलाफ 

तो करता कौन है अगला बलात्कार? 

न्याय के लिए आज सब हात मेंं मोमबत्ती लेके खडे है 

पर कल कोई उसे बुझाकर फिर बलात्कार करके आता है 

सब दुसरों से उमिद रखते है गंदी सोच रोखने के 


बस खुद लगे रहेते है तमाशा देखने में

पोलीस थाने की लक्ष्मण रेखा उसे रोक रही है 

पर अंदर के न्याय की आग नही 

उसको न्याय दिलवाने के लिए

इतने सारे पेपर मेंं इंच भर जागा तक नही


बस अपनी अपनी माँ और बहन है 

दुसरों की बहन तो आयटम है.. 

खुद के साथ हुआ तो अत्याचार है 

दूसरों के साथ हुआ तो लडकी बिघडी हुई है.. 

खुद के घर के औरतों की इज्जत हिरों से भी महंगी है

दुसरों की कुछ पैसों मेंं तोली जाती है..


इज्जत अगर कपडोंसे सुरक्षित होती, 

तो पांच साल की बच्ची भी साडी लपटके होती.. 

लडकी के चरित्र पर सवाल उठाने से पहले, 

खुद की नजर तो साफ कर लेते..

चरित्र पर बोलने के लिए तो, 

तुझ मेंं हिम्मत कुट कुट के भरी है

पर किसी लडकी के लिए न्याय मांगते समय, 

गले मेंं खुद के सन्मान की हड्डी फसी है..


क्या है किसी के पास साहस एक ही बार मेंं सब रोकने की ?

आगे पीछे मत देखना घर में बहन तेरी भी जवान है।


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