काश
काश
मैं एक बेकाश सी काश में हूं।
एक खोई हुई आस में हूं।
बेदर्द भरी लग रही है ये ज़िंदगी
एक बेजुबान सी आवाज़ में हूं।
क्या है?
क्यों है ?
कैसे है?
क्या करना है जानकर ?
जो भी है बस ये ही है और यहीं है।
छुपकर बैठी हुई हूं मैं, कहीं अपने दर्दों से
मन भर गया है ,अब मेरा अपने ज़ख्मों से ।
मरहम भी अब नमक सा लगने लगा है मुझे
थक गई हूं मैं अब अपने अधूरे सपनों से ।
जानती नहीं कि मैं बचूंगी या नहीं
लगता है , जैसे खो गई हूं मैं यहीं कहीं।
आस , उम्मीद सब ख़तम हो गई है
मेरी दुनिया अब मेरे अंदर हमेशा को सो गई है।।