कहीं ये तेरा प्यार तो नहीं...
कहीं ये तेरा प्यार तो नहीं...
समय की आपाधापी में,
किसी अनभिज्ञ से गंतव्य तक
पहुँचने की जल्दबाज़ी में ...
हरबार यूँ लगा कि
कहीं गहराई में बो कर भूल गयी
अपने प्रेम के बीज..
जिस पर नियमित जमती रही
सुख दुख की मिट्टी की परतें...
और ओझल ही हो गया
आँखों से किसी सपने का हिस्सा ..
पर अब जब बैठती हूँ
थोड़ी फुर्सत चुराये,
हाथ में चाय की प्याली थामे
और सोचती हूँ कि -
ये जो खिलते हैं रंग बिरंगे
फूलों के बूटे,
मेरे मन की मुलायम धानी चूनर पर..
ये जो रूई के कोमल फाहे से
छोटी छोटी ख़ुशियों के बादल बन
बिखर जाते हैं
आसमान की नीली चादर पर,
यूँ ही गाहे गाहे,
कहीं तेरा प्यार तो नहीं...