मैं भीड़ में खड़ा, एक तनहा इंसान हूं!
मैं भीड़ में खड़ा, एक तनहा इंसान हूं!
खामोश हूँ, पर ना ज़रा सा भी शांत हूँ,
मैं भीड़ में खड़ा एक तनहा इंसान हूँ !
वहम है शायद मेरा पर कल तक तो गुमान था
इस तन्हाई में ही तो मेरा सारा जहान था!
यूं तो हर कोई मोहब्बत पाता है हर मुकाम पर
अपनी मौजूदगी का शायद मैं अपना ही आसमान हूँ !
मैं भीड़ में खड़ा एक तनहा इंसान हूँ !
क्या सच-मुच?
क्या सचमुच जब माँ ने कल पूछा हाल सुनाओ अपना,
तो उसकी ममता के आँसू से दिल पिघला नहीं मेरा?
बचपन की गलियों को अजनबी बना,
बन गया वहां का मुसाफिर यूं,
आज उन गलियों के सीने में फूट रहे
मुझसे मिलने के अरमान क्यों?
खामोश हूँ, पर ना ज़रा सा भी शांत हूँ ,
मैं भीड़ में खड़ा एक तनहा इंसान हूँ !
वह बच्चा जिसके हाथों में लकीरें कम
निशान ज्यादा है,
पूछ रहा मुझसे क्या दुखते हैं तेरे निशान भी यूं,
दर्द का एहसास उसे काफी कम है मुझसे,
क्या बेनिशान से दर्द मेरे, सारे उसे ही बांट दूँ
खामोश हूँ, पर ना ज़रा सा भी शांत हूँ !
मैं भीड़ में खड़ा एक तनहा इंसान हूँ !
यह जो लोग खुशफहमी में दुखी हैं,
कैसे बताऊँ इनको कि दुख: और भी हैं
दुख: को पहचान तू ,
लोग पूछते हैं मुझसे क्या वजह है तेरी
बेवजह सी वजहें लिए अब मैं बेजु़बान हूँ !
मैं भीड़ में खड़ा एक तनहा इंसान हूँ !