मेरी अभिलाषा
मेरी अभिलाषा
चलें दूर कहीं किसी पर्वत पर
किसी घाटी या एकाकी उपवन
ओ नीरव ! आ दोनो सुन लें
मैं तेरा, तू मेरा क्रंदन।
यदि मैं हूँ बस एक पपिहा
चिर प्यासा जिसका जीवन
ओ बूंद ! मेरे नयनों में आ
तर कर लूं मैं अपना तन मन।
जब राग द्वेश और अभिलाशा से
क्लांत ह्रदय, अत्रप्त हो मन
ओ चंद्र किरन ! मुझको छू ले
दे दे मुझको जीवन स्पंदन।
क्यों बँनू मैं कस्तूरी मृग
खोजूं तुझको, भटकूँ वन वन
ओ सुगंध ! मुझमें बस जा तू
मैं हो जाऊँ जैसे चंदन।
सूक्ष्म - विरक्त और मुझमें है तू
फिर क्यों चंचल मेरा मन
ओ 'परमब्रह्म' ! अब हो जाने दे
तू मेरा अपना मंथन।