मर्द को भी दर्द होता है
मर्द को भी दर्द होता है
आँसू के स्वाद से अन्जान है पुरुष
संघर्षों का साथी चट्टान सा अड़िग
बात बात पर कहाँ रो पाता है।
छवि ही पर्वत सी विराट बनी है
मर्द की आँखों से बहता अश्क का समुन्दर
दुर्लभ दृश्य है दुनिया की हर शै का।
पर कभी
अपने पर्याय सी प्रिया के कंधे पर सर रखकर रो दे मर्द
तो ऐ स्त्री उसे टोकना नहीं
हथेलियों में उसका चेहरा भरकर भाल को चूम लेना।
और कहना
हक है तुम्हें भी हल्का होने का
उडेल दो मेरे आँचल में सारी नमी
तुम्हारा सारा दर्द समेट लूँगी अपने भीतर
क्यूँकि मैं जानती हूँ
होता है दर्द मर्द को भी कभी-कभी।