मुलजिम
मुलजिम
सुनो स्त्रियों !
मुलजिम हो तुम
अपने ही तबके की
उन तमाम नवजातों की
घोट दिया गला जिनका
बडी़ ही बेरहमी से
सुनो स्त्रियों!
मुलजिम हो तुम
उन तमाम छोटी बच्चियों की
छीनकर किताबें
झौंक दिया जिनको
चूल्हे चौके में ताउम्र के लिए
सुनो स्त्रियों !
मुलजिम हो तुम
उन जवां होती लड़कियों की
बांध दिया जिनको
समझ गाय खूंटे से
बिना उनकी मर्जी के
सुनो स्त्रियों!
मुलजिम हो तुम
उन तमाम नवविवाहितों की
बना दी गई जो राख का ढेर
जलाकर धधकती ज्वाला में
महज दहेज के लालच में
सुनो स्त्रियों!
मुलजिम हो तुम
उन रंग बिरंगी तितलियों की
छीन लिये जिनसे
जीवन के सारे रंग
पति के ना होने पर
सुनो स्त्रियों!
मुलजिम हो तुम
उन बूढी़ हड्डियों की
सुबकती रही जो
वृद्धाश्रम के किसी कोने में
हर रोज मरने के लिए
सुनो स्त्रियों!
तुम लड़ सकती थी
भिड़ सकती थी ,एकजुट हो
मगर तुम खामोश रहीं
सदियों से
और अब भी हो
सुनो स्त्रियों!
मुलजिम हो तुम
हां मुलजिम हो तुम
और तुम्हारा हर जुर्म
अब सिद्ध हो चुका है
तुम अब अपनों की ही
"मुजरिम " हो चुकी हो
बोलो जरा ! तुम्हें अब
क्या सजा सुनाई जाये ?