"सांझ ढ़लने --लगी "
"सांझ ढ़लने --लगी "
सांझ ढ़लने लगी
सूर्य डूबने लगा,
अस्ताचल में
सुर्ख लाल रंग बिखेरता हुआ
नभ में....
परिंदे भी लौटने लगे,
घरौंदो को अपने
चारो तरफ एक नीरवता सी छा रही है
धरा पर...
पुआल की बनी झोपड़ी --
जो आश्रय है, किसी का
प्रतीत होते, छाया चित्र समान
नन्हें नन्हें रोशनदानों से झांकते
डूबते सूर्य की, लालिमा
अग्नि -सा आभास देती है
वहीं, पास मे बहते हुए
गंदले पानी के पोखर में
उतरता है, स्याह रंग अंबर से
धीरे धीरे..... वहीं
रेवड़ का लौटना --सांझ ढ़ले
घर को अपने --जिसका
द्वार, डूब रहा है अंधेरे मे
मानो..
दिवस के अवसान का अंत है
सांझ ढ़लने लगी.... धीरे धीरे