सावन से रूठने की हैसियत ना रही
सावन से रूठने की हैसियत ना रही
सख्त शख्सियत अब नहीं लेती अब मौसमों के दखल
अक्सर आईने बदले अपने अक्स की उम्मीद में...
हर आईना दिखाये अजनबी सी शक्ल।
अपनी शिनाख्त के निशां मिटा दिये कबसे...
बेगुनाही की दुहाई दिये बीते अरसे....
दिल से वो याद जुदा तो नहीं !
मुद्दतों उस इंतज़ार की एवज़ में वीरानों से दोस्ती खरीदी,
ज़माने से रुसवाई के इल्ज़ाम की परवाह तो नहीं !
सावन से रूठने की हैसियत ना रही।
रोज़ दुल्हन सी सँवार जाती है मुझको यादें...
हर शाम काजल की कालिख़ से चेहरा रंग लेती हूँ...
ज़िन्दगी को रूबरू कर लेती हूँ...
कभी उन यादों को दोष दिया तो नहीं...
सावन से रूठने की हैसियत ना रही।
इज़हार रे याद,
हाल ए दिल बयाँ करना रोजाना अमल लाये,
कैसे मनाएँ दिल को के आज हकीकत सामने है...
रोज़ सा खाली दिन वो नहीं...
उस पगडंडी का सहारा था,
वरना रूह ख़ाक करने में कसर न रही...
ज़हर लेकर भी जिंदगी अता तो नहीं...
सावन से रूठने की हैसियत ना रही।
इल्जामो में ढली रात बीती न कभी,
जाने कब वो मोड़ ले आया इश्क...
बर्दाश्त की हद न रही।
अरसों उनकी बदगुमानी की तपिश जो सही...
सरहदें खींचने में माहिर है ज़माना,
दोगली महफिलों से गुमनामी ही भली...
खुद की कीमत तेरी वरफ़्तगी से चुनी...
जिस्म की क़ैद का सुकून पहरेदारों का सही...
ख्वाबो पर मेरे बंदिशें तो नहीं...
सावन से रूठने की हैसियत ना रही।
कैसी महफ़िल है जहाँ बयानों पर भड़कती भीड़,
मेरे अंजामों पर तड़पती तो नहीं...
उस हैवानियत पर भड़कती क्यों नहीं ?
मेरे खूबसूरत चेहरे सी सबकी सीरत तो नहीं...
सावन से रूठने की हैसियत ना रही।
क्यों यह फ़िज़ा भारी सी है?
कहीं इस पर भी सुर्ख धुंद हावी तो नहीं ?
कल रूह हार कर पूछ ही बैठी,
यहाँ इंसाफ से पहले बुतों के सामने कितनी दरख्वास्त लगाती हूँ,
सीधे खुदा तक जाती क्यों नहीं ?
सावन से रूठने की हैसियत ना रही।