शीर्षक: इंसान हूं!
शीर्षक: इंसान हूं!
इंसान हूं इनसानों जैसी
मुझ में भी है ऐब कई
गुस्सा है, नादानी भी, पर
छोड़ आई हूं फरेब कहीं
तरसने लगी हैं आंखें अब
शफकत, सकून, फना है
किस से करे शिकायत हम
साया भी तो नहीं अपना है
लंबी है फेहरिस्त दोस्तों की
दर्द का होता उन्हें गुमान कहां
झुक जाएं, झोली फैलाएं
अपना भी ऐसा ईमान कहां
अँधेरों में चराग़ जलाओ
रूह से आती आवाज़ यही
अभी इंसानियत मरी नहीं
उठो, लो एक परवाज़ नई
इंसान हो तो इंसान बनो
न छेड़ो अपने जमीर को
अरे यही तो छुपा राज है
नई शक्ल दे तकदीर को.....